कोरोना संकट: आपको प्रवासी मजदूरों के मानवीय अधिकार क्यों नहीं दिखते?

बीतते वक्त के साथ यह स्पष्ट होता जा रहा है कि कोविड-19 का जारी वैश्विक संकट आसानी से समाप्त नहीं होने वाला है। यह संकट पूर्ण रूप से कब खत्म होगा यह बता पाना कठिन है। कोविड-19 के प्रभाव और प्रसार को रोकने के लिए जिस वैक्सीन की जरूरत है, उसे आने में अभी एक लंबा वक्त लगेगा। कोई भी वायरस इतनी जल्दी समाप्त नहीं होता और कई दशक लग जाते हैं, किसी वायरस के प्रभाव को समझ पाने में। कोविड-19 का यह वायरस बिल्कुल नया है और अभी वैज्ञानिकों को इसके लिए एक प्रभावशाली वैक्सीन तैयार करने में एक लंबा समय लगेगा। उम्मीद बस यह है कि कोविड-19 एक वैश्विक संकट है और पूरा विश्व इसके इलाज पर काम कर रहा है, इसलिए आने वाले 1 या 2 वर्षों में एक अच्छी वैक्सीन हमारे सामने मौजूद होगी। लेकिन प्रश्न उठता है कि क्या इसके प्रभाव के बीच पूरी दुनिया को वैक्सीन आने तक के लंबे समय के लिए लॉकडाउन में ही रहना होगा? क्या सभी आर्थिक और गैर-आर्थिक गतिविधियों को एक लंबे समय के लिए बंद रखना होगा? यह एक कठिन प्रश्न है जिसका जवाब हां और ना के बीच में मौजूद है। अगर अचानक से पूरी दुनिया को एक साथ खोल दिया गया तो यह वायरस एक बड़ी तबाही ला सकता है और अगर आर्थिक गतिविधियों को बंद रखा गया तो एक बड़ी आर्थिक तबाही इस वायरस से भी ज्यादा मौतें ला सकती है।

(राशन के लिए पंक्तिबद्ध प्रवासी परिवार)

बदलते घटनाक्रम में कोविड-19 का प्रभाव भारत में तेजी से बढ़ता जा रहा है। नए कोविड-19 संक्रमण के मरीजों की संख्या तेजी से बढ़ रही है और उसके साथ ही आर्थिक चुनौतियां अपना दायरा बढ़ा रही हैं। देश में मजदूरों का संकट तेजी से गहराता जा रहा है और विभिन्न राज्य सरकारें अपने अपने यहां के प्रवासी मजदूरों को वापस बुला रही हैं। इसी क्रम में एक घटना कर्नाटक से निकल कर आई है, जिसकी चर्चा तेजी से हो रही है। कर्नाटक की बीएस येदियुरप्पा सरकार ने प्रवासी मजदूरों को उनके घर पहुंचाने वाली सभी ट्रेनों को रद्द कर दिया है। तर्क रखा है कि राज्य की अर्थव्यवस्था को पुनः चालू करने के लिए इन मजदूरों की आवश्यकता है। फिलहाल में अपने गृह राज्य लौटने के लिए कुल पंजीकृत प्रवासी मजदूरों के आंकड़े मौजूद तो नहीं है लेकिन अकेले बिहार लौटने के लिए कुल 23 स्पेशल ट्रेनों की व्यवस्था की गई थी। प्रवासी मजदूरों के वापस भेजने के निर्णय को रद्द करने के बाद मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने मजदूरों को रोकने के लिए 1,610 करोड़ रुपये का मुआवजा देने का ऐलान किया है। अब खबर है कि कर्नाटक सरकार मजदूरों को वापस भेजने पर दोबारा विचार कर रही है। इस पूरे घटनाक्रम को समझने के लिए इसके दो पक्षों को समझना जरूरी है। पहला आर्थिक पक्ष और दूसरा सामाजिक पक्ष।

आर्थिक पक्ष- लॉकडाउन 3.0 में कुछ अतिरिक्त सेवाओं के संचालन में छूट दी गई है। लेकिन सरकार यह निर्णय लेने में शायद थोड़ा विलंब कर चुकी है। यह काम लॉकडाउन 2.0 के समय ही करना चाहिए था। अब प्रवासी मजदूरों का सब्र टूट रहा है और वह हर हाल में अपने गृह राज्य में जाना चाहते हैं। एक तरफ सभी बड़े औद्योगिक शहरों से मजदूरों को वापस उनके गृह राज्य भेजा जा रहा है। उत्तर प्रदेश और झारखंड जैसे राज्यों ने अपने मजदूरों को वापस लाना चालू कर दिया है। लेकिन दूसरी तरफ बड़े आर्थिक शहरों में उत्पादन कंपनियों को चालू करने की तैयारी चल रही है। अब प्रश्न यह है कि इन बड़ी मैनुफैक्चरिंग कंपनियों में मजदूर कहां से आएंगे और क्या वापिस अपने गृह राज्यों में गए मजदूर इतनी जल्दी शहर आने की हिम्मत दिखा पाएंगे? मजदूरों की उपलब्धता पर प्रश्न इसलिए है क्योंकि इन सारी बड़ी कंपनियों में अधिकतम मजदूर यूपी, झारखंड और बिहार के होते हैं। यहां एक महत्वपूर्ण बात यह है कि इन राज्यों के प्रवासी मजदूर सामान्य मजदूरी पर भी काम करने को तैयार रहते हैं। अब कंपनियों के सामने दो समस्या है कि वह मजदूर कहां से लाएंगे और अगर स्थानीय स्तर पर मजदूर मिल भी जाते हैं तो क्या यूपी, बिहार जैसे राज्यों के मजदूरों की तरह वह भी सामान्य मजदूरी पर काम करेंगे?

लॉकडाउन खोलने का दूसरा पहलू जिस पर अधिक चिंतन होना चाहिए कि क्या इसे चरणों में खोला जाना चाहिए ? चरणों के हिसाब से लॉकडाउन खोलने पर एक बड़ी समस्या मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों के लिए उनके उत्पादन यूनिट और कच्चे माल की यूनिट के बीच के सामंजस्य की है। ऐसी सैकड़ों कंपनियां हैं जिनका उत्पादन किसी अन्य राज्य के जरिए पैदा होने वाले कच्चे माल पर निर्भर करता है। यानी कि अगर गुजरात की किसी कंपनी को कच्चा माल महाराष्ट्र से मिलना हो औरे कोविड-19 की महामारी झेल रहा महाराष्ट्र अगर कच्चा माल उपलब्ध कराने वाले इलाके को बंद रखता है तो फिर यह उस कंपनी के लिए लॉकडाउन का चरणों में खुलना एक बड़े घाटे का सौदा हो सकता है। इसलिए जारी लॉकडाउन को एक गंभीर रणनीति के साथ खोला जाना चाहिए।

यह सत्य है कि दक्षिण और पश्चिम सभी बड़े औद्योगिक शहरों में उत्तर भारत के राज्यों के मजदूर काम करते हैं। इसलिए प्रवासी मजदूरों के रूप में खड़े इस आर्थिक संकट को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। यह मजदूर इन राज्यों में आर्थिक गतिविधियों के लिए रीढ़ की हड्डी की तरह काम करते हैं। लेकिन अब इसी संकट का दूसरा पहलू है-

सामाजिक पक्ष– सामाजिक पक्ष मजदूरों की स्वतंत्रता, उनके संवैधानिक अधिकार और उनके मानवाधिकार की वकालत करता है। कोई भी राज्य सरकार किसी भी प्रवासी मजदूर को जबरन मजदूरी के लिए बाध्य नहीं कर सकती है और तब जब दूसरा राज्य अपने प्रवासी मजदूरों को वापस लाने के लिए तैयार है। यह इन मजदूरों के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है। उन्हें यह चुनने का अधिकार है कि वह किसके लिए कब मजदूरी करेंगे। इन प्रवासी मजदूरों के साथ राज्य सरकारों ने कोई ऐसी संधि भी नहीं की है कि वह इन्हें जबरन रोक सके।

पिछले 1 मई को ही पूरी दुनिया अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस मना रही थी। उसके कुछ ही दिन बाद हमारे सामने यह प्रश्न उठता है कि क्या मजदूर सिर्फ ईट, सीमेंट और सरिया लगाने के लिए होते हैं? क्या उनका कोई सामाजिक और मानवीय पक्ष नहीं होता है? क्या इस संकट की घड़ी में वह अपने परिवार के साथ नहीं रह सकते हैं? क्या कर्नाटक की राज्य सरकार यह सुनिश्चित कर सकती है कि आने वाले दिनों में आर्थिक गतिविधियों के चालू होने के बाद से इनमें से मौजूद कोई भी मरीज कोविड-19 का शिकार नहीं होगा? क्या प्रवासी मजदूरों को इसलिए रोका जा रहा है क्योंकि इनका सीधा पर्याय सस्ते श्रम से होता है? क्या आज के हमारे प्रगतिशील समाज में यह बंधुआ मजदूरी की प्रथा नहीं है ? ऐसे तमाम प्रश्न है जो प्रवासी मजदूरों के मानव पक्ष की वकालत करते हैं।

जब सरकार ने मार्च के आखिरी सप्ताह में लॉकडाउन की घोषणा की थी तब उसे भी अनुमान नहीं था कि प्रवासी मजदूरों का इतना बड़ा संकट सामने आने वाला है। यह हमारे सिस्टम के “डाटा इन्फ्राट्रक्चर” की कमजोरी को भी दर्शाता है। देश की सरकार के पास प्रवासी मजदूरों से जुड़ा कोई भी ठोस डांटा मौजूद नहीं है। अगर सरकार आंकड़े जानती तो निश्चित ही कुछ एतिहाद कदमों के साथ इतने बड़े निर्णय को अमल में लाने का कार्य किया होता। अब प्रवासी मजदूरों के पलायन का संकट सामने है। इन मजदूरों की निगाहें सरकार के कदमों पर निर्भर कर रही है। जिनका सब्र टूट रहा है वे पैदल या किसी अन्य संसाधन से ही अपने घरों को निकल रहे हैं।

देश के कुछ राज्य सरकारों ने अपने यहां के प्रवासी मजदूरों के लिए प्रयास किए है। लेकिन अभी भी एक बड़ी आबादी संकट में फंसी हुई है। अगर वर्तमान परिस्थितियों में सरकार को प्रवासी मजदूरों को वापस भेजने में दिक्कत आ रही है तो सबसे पहले उनकी सामाजिक सुरक्षा को सुनिश्चित किया जाना चाहिए। इसके लिए नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अभिजित विनायक बनर्जी के सुझाव को मानते हुए इन सभी मजदूरों को तुरंत प्रभाव से अस्थाई राशन कार्ड जारी किए जाएं। इसके जरिए प्रवासी मजदूरों के सामने खड़े भोजन के संकट को दूर किया जा सकता है। एक निश्चित मजदूरी तय करते हुए इन सभी प्रवासी मजदूरों को काम न मिलने की स्थिति में भुगतान किया जाए। अगर प्रवासी मजदूर पुनः अपनी कंपनियों में काम कर रहे हैं तो उन्हें मदद की जरूरत नहीं है, लेकिन अगर उन्हें काम नहीं मिल पा रहा है तो निश्चित रूप से सरकार को एक निश्चित राशि के भुगतान के जरिए उनकी मदद करनी चाहिए। इस कदम से मजदूरों के आर्थिक पक्ष की समस्या को दूर किया जा सकता है। अभी भी सरकारें बहुत कुछ कर सकती हैं। यह समय मजदूरों के साथ खड़े होने का है। इनके जीवन के साथ-साथ जीवनव्यापन को भी सुनिश्चित करना होगा। बिना सामाजिक हितों की रक्षा किए हुए इस समस्या का हल नहीं निकाला जा सकता है। इन प्रवासी मजदूरों का संकट कई बड़े औद्योगिक शहरों के आर्थिक अस्तित्व का संकट बन सकता है।

(लेखक काशी हिंदू विश्वविद्यालय के छात्र और फाइनेंस एंड इकोनॉमिक्स थिंक काउंसिल के संस्थापक एवं अध्यक्ष हैं)

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