क्या ट्रेड वॉर में और भी देश हो सकते हैं शामिलॽ

वैश्विक अर्थव्यवस्था संरक्षणवाद (प्रोटेक्शनिज्म) और व्यापार युद्ध यानी ट्रेड वॉर की तरफ बढ़ रही है. इसकी शुरुआत अमेरिका ने की है. दुनिया की इस सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था ने हाल में आयातित स्टील पर 25 फीसदी और एलुमिनियम पर 10 फीसदी की दर से टैरिफ लगा दिया है. चीन से आयात होने वाली वस्तुओं पर सालाना 60 अरब डॉलर मूल्य का शुल्क लगाया है. इससे चीन बौखला गया है.

आयात शुल्क विश्व व्यपार में आर्थिक संरक्षणवाद (इकोनॉमिक प्रोटेक्शनिज्म) का तरीका होता है. अर्थशास्त्र में संरक्षणवाद एक आर्थिक नीति होती है. इसमें विदेश से आयातित वस्तुओं पर शुल्क, कोटा आदि जैसे तरीकों से रोक लगार्इ जाती है. इसका मकसद अपने उद्योगों को नुकसान से बचाना और उनमें नए अवसरों को विकसित करना होता है. हालांकि, आर्थिक संरक्षणवाद छोटी अवधि में ही फायदेमंद है. लंबी अवधि में इसका नुकसान होता है.

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप लगातार ऐसे निर्णय ले रहे हैं जिनसे दुनिया ट्रेड वॉर की तरफ बढ़ रही है. ट्रंप प्रशासन ने हाल ही में नॉर्थ अमेरिका फ्री ट्रेड एग्रीमेंट (नाफ्टा), 1994 पर दोबारा वार्ता एवं विचार की बात भी रख दी है.

यह एग्रीमेंट दुनिया का सबसे बड़ा ट्रेड एग्रीमेंट है जो अमेरिका, कनाडा और मेक्सिको के बीच हुआ था. ट्रंप प्रशासन ने अमेरिका को ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) से भी बाहर रखने का मन बना लिया है.

यह पार्टनरशिप प्रशांत महासागर से लगे 12 देशों के मध्य तैयार किया गया मसौदा है. विश्व व्यापार में यह एक बड़ी आर्थिक मजबूती प्रदान कर सकता है. अमेरिकी अर्थव्यवस्था ये निर्णय तब ले रही है जब विश्व बाजार आर्थिक मंदी के दौर से बाहर आकर खुले बाजार की मांग कर रहा है.

दुनिया के बडे़ अर्थशास्त्री भी संरक्षणवादी नीति का विरोध करते हैं और फ्री ट्रेड की ही वकालत करते रहें है. उदाहरण के तौर पर नोबेल पुरस्कार विजेता मिल्टन फ्रिडमैन और पॉल क्रुगमैन को लिया जा सकता है. इन्होंने मुक्त व्यपार की वकालत की थी.

अमेरिका इतिहास से भी संरक्षणवाद के दुष्प्रभावों से सबक ले सकता है. पहला उदाहरण स्मूट-हावले टैरिफ, 1930 का है. यह उपाय यूरोप में किसानों को कृषि उत्पाद आयातों के प्रभाव से बचाने के लिए किया गया था.

इस टैरिफ ने फायदे के बजाय नुकसान ज्यादा पहुंचाया था. ग्रेट डिप्रेशन, 1930 के लंबा चलने का एक प्रमुख कारण इसको माना गया था. दूसरा उदाहरण जो अधिक चर्चित है वह अमेरिका में एग्रीकल्चरल एडजस्टमेंट एक्ट, 1933 का है. तब अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने सब्सिडी के रूप में आर्थिक संरक्षणवाद की कोशिश की थी.

इस कानून के फलस्वरूप किसानों ने सब्सिडी की आड़ में फसल उत्पादन ही बंद कर दिया था. ऐसे ऐतिहासिक तथ्यों से तो यही स्पष्ट होता है कि आर्थिक संरक्षणवाद लंबे समय तक हितकारी नहीं हो सकता है.

अमेरिका के ताजा संरक्षणवादी रवैये का ही परिणाम है कि चीन भी 128 अमेरिकी वस्तुओं पर आयात शुल्क लगाने पर विचार कर रहा है. रूस भी कुछ ऐसी योजना पर कार्य कर रहा है.

अगर इस ट्रेड वॉर में अन्य देश भी शामिल हो जाते हैं तो स्थिति नाजुक हो सकती है. अर्थशास्त्र का नियम कहता है कि अर्थव्यवस्था में संसाधन सीमित हैं और उनकी मांग अधिक है. इसलिए कोर्इ भी देश अपनी जरूरतों और मांगों को अकेले पूरा नहीं कर सकता.

इसके लिए उसे दूसरों पर निर्भर होना पड़ता है. ऐसी स्थिति में वैश्विक अर्थव्यवस्था को समन्वय बनाकर ही काम करना चाहिए. वर्तमान स्थिति ट्रेड वॉर को हवा देने वाली है. इसमें भारतीय अर्थव्यवस्था भी प्रभावित हो सकती है. अमेरिकी प्रशासन को समझना होगा कि मुक्त बाजार और विश्व व्यापार में प्रतिस्पर्धा ही हितकारी होती है. संरक्षणवाद विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) की धारणा के खिलाफ है.
वैश्विक अर्थव्यवस्था संरक्षणवाद (प्रोटेक्शनिज्म) और व्यापार युद्ध यानी ट्रेड वॉर की तरफ बढ़ रही है. इसकी शुरुआत अमेरिका ने की है. दुनिया की इस सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था ने हाल में आयातित स्टील पर 25 फीसदी और एलुमिनियम पर 10 फीसदी की दर से टैरिफ लगा दिया है. चीन से आयात होने वाली वस्तुओं पर सालाना 60 अरब डॉलर मूल्य का शुल्क लगाया है. इससे चीन बौखला गया है.

आयात शुल्क विश्व व्यपार में आर्थिक संरक्षणवाद (इकोनॉमिक प्रोटेक्शनिज्म) का तरीका होता है. अर्थशास्त्र में संरक्षणवाद एक आर्थिक नीति होती है. इसमें विदेश से आयातित वस्तुओं पर शुल्क, कोटा आदि जैसे तरीकों से रोक लगार्इ जाती है. इसका मकसद अपने उद्योगों को नुकसान से बचाना और उनमें नए अवसरों को विकसित करना होता है. हालांकि, आर्थिक संरक्षणवाद छोटी अवधि में ही फायदेमंद है. लंबी अवधि में इसका नुकसान होता है.

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप लगातार ऐसे निर्णय ले रहे हैं जिनसे दुनिया ट्रेड वॉर की तरफ बढ़ रही है. ट्रंप प्रशासन ने हाल ही में नॉर्थ अमेरिका फ्री ट्रेड एग्रीमेंट (नाफ्टा), 1994 पर दोबारा वार्ता एवं विचार की बात भी रख दी है.

यह एग्रीमेंट दुनिया का सबसे बड़ा ट्रेड एग्रीमेंट है जो अमेरिका, कनाडा और मेक्सिको के बीच हुआ था. ट्रंप प्रशासन ने अमेरिका को ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) से भी बाहर रखने का मन बना लिया है.

यह पार्टनरशिप प्रशांत महासागर से लगे 12 देशों के मध्य तैयार किया गया मसौदा है. विश्व व्यापार में यह एक बड़ी आर्थिक मजबूती प्रदान कर सकता है. अमेरिकी अर्थव्यवस्था ये निर्णय तब ले रही है जब विश्व बाजार आर्थिक मंदी के दौर से बाहर आकर खुले बाजार की मांग कर रहा है.

दुनिया के बडे़ अर्थशास्त्री भी संरक्षणवादी नीति का विरोध करते हैं और फ्री ट्रेड की ही वकालत करते रहें है. उदाहरण के तौर पर नोबेल पुरस्कार विजेता मिल्टन फ्रिडमैन और पॉल क्रुगमैन को लिया जा सकता है. इन्होंने मुक्त व्यपार की वकालत की थी.

अमेरिका इतिहास से भी संरक्षणवाद के दुष्प्रभावों से सबक ले सकता है. पहला उदाहरण स्मूट-हावले टैरिफ, 1930 का है. यह उपाय यूरोप में किसानों को कृषि उत्पाद आयातों के प्रभाव से बचाने के लिए किया गया था.

इस टैरिफ ने फायदे के बजाय नुकसान ज्यादा पहुंचाया था. ग्रेट डिप्रेशन, 1930 के लंबा चलने का एक प्रमुख कारण इसको माना गया था. दूसरा उदाहरण जो अधिक चर्चित है वह अमेरिका में एग्रीकल्चरल एडजस्टमेंट एक्ट, 1933 का है. तब अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने सब्सिडी के रूप में आर्थिक संरक्षणवाद की कोशिश की थी.

इस कानून के फलस्वरूप किसानों ने सब्सिडी की आड़ में फसल उत्पादन ही बंद कर दिया था. ऐसे ऐतिहासिक तथ्यों से तो यही स्पष्ट होता है कि आर्थिक संरक्षणवाद लंबे समय तक हितकारी नहीं हो सकता है.

अमेरिका के ताजा संरक्षणवादी रवैये का ही परिणाम है कि चीन भी 128 अमेरिकी वस्तुओं पर आयात शुल्क लगाने पर विचार कर रहा है. रूस भी कुछ ऐसी योजना पर कार्य कर रहा है.

अगर इस ट्रेड वॉर में अन्य देश भी शामिल हो जाते हैं तो स्थिति नाजुक हो सकती है. अर्थशास्त्र का नियम कहता है कि अर्थव्यवस्था में संसाधन सीमित हैं और उनकी मांग अधिक है. इसलिए कोर्इ भी देश अपनी जरूरतों और मांगों को अकेले पूरा नहीं कर सकता.

इसके लिए उसे दूसरों पर निर्भर होना पड़ता है. ऐसी स्थिति में वैश्विक अर्थव्यवस्था को समन्वय बनाकर ही काम करना चाहिए. वर्तमान स्थिति ट्रेड वॉर को हवा देने वाली है. इसमें भारतीय अर्थव्यवस्था भी प्रभावित हो सकती है. अमेरिकी प्रशासन को समझना होगा कि मुक्त बाजार और विश्व व्यापार में प्रतिस्पर्धा ही हितकारी होती है. संरक्षणवाद विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) की धारणा के खिलाफ है.

विक्रांत सिंह (लेखक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाणिज्य संकाय के फाइनेंस एंड इन्वेस्टमेंट सेल में FoCian के संस्थापक हैं)

Image Source:-freepressjournal

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