भारतीय अर्थव्यवस्था की कहानी को वर्ष 2017-18 से चालू करते है जब पहली तिमाही में जीडीपी ग्रोथ रेट 8.1 परसेंट पहुंच गई थी. यह तिमाही इसलिए विशेष थी क्योंकि 2016 की नोटबंदी जैसे बड़े आर्थिक कदम के बाद की तिमाही थी. वही आज वर्ष 2019-20 की पहली तिमाही में जीडीपी दर घटकर 5% हो गई है. तो ऐसा क्या हुआ कि 2.5 साल की यात्रा में भारतीय अर्थव्यवस्था 3% घट गई? नोटबंदी के बाद तो इतिहासिक जीडीपी वृद्धि दर दर्ज की गई थी. भारतीय अर्थव्यवस्था में सेविंग रेट वर्ष 2011-12 में 34.6% हुआ करती थी जो कि आज घटकर 30.5% हो गई है. प्राइवेट फाइनल कंजप्शन एक्सपेंडिचर (पीएफसीई) पिछले वर्ष 1.65 लाख करोड़ रुपए का था जो कि आज घटकर 1.5 लाख करोड़ रुपए का हो गया है. यानी कि भारतीय अर्थव्यवस्था की इतनी बड़ी आबादी अब खपत भी नहीं कर पा रही है. इसलिए वर्तमान समय में अर्थव्यवस्था में चल रही सुस्ती खपत आधारित है. अब जब अर्थव्यवस्था में खपत ही नहीं हो रही है तो बाजार में मांग कहां से होगी? और जब बाजार में मांग नहीं होगी तो निजी निवेश में गिरावट आना लाजमी है. इसलिए ऊर्जा क्षेत्र को छोड़कर भारतीय अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में खपत की बुनियाद पर मांग की कमी के कारण बड़ी गिरावट देखी जा रही है.
कुछ दिन पहले सुधारों के क्रम में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने घरेलू कंपनियों के लिए कॉरपोरेट टैक्स की दर घटाकर 22 फीसदी करने का ऐलान किया है. शेयर बाजार ने और कारपोरेट जगत ने इस कदम का स्वागत करते हुए इसे एक ऐतिहासिक सुधार बताया है. ऐतिहासिक गिरावट देख रहे मैन्युफ़ैक्चरिंग सेक्टर के लिए भी सरकार ने टैक्स रेट में कटौती की है. वित्त मंत्री ने घोषणा की है कि वे मैन्युफ़ैक्चरिंग कंपनियां जो एक अक्तूबर 2019 के बाद पंजीकृत और मार्च 2023 से पहले अपना उत्पादन शुरू कर देती हैं उनके लिए कॉरपोरेट टैक्स को 25% से 15% कर दिया गया है. सरचार्ज को अगर जोड़ दिया जाए तो उन्हें 17.5% के नजदीक टैक्स देना होगा. सरकार के इन कदमों से खजाने पर करीब 1 लाख 45 हजार करोड़ सालाना का भार पड़ेगा.
लेकिन प्रश्न यह है कि जब अर्थव्यवस्था खपत आधारित मंदी को देख रही थी तब क्या कारपोरेट टैक्स में दी गई छूट फिर से नई जान फूंक पाएगा? कारपोरेट निवेश तब करते हैं जब बाजार में मांग होती है और मांग तब होती है जब खपत होता है. इसलिए यह कहना कठिन होगाा कि इस कदम से अर्थव्यवस्था में बड़े स्तर पर निवेश प्राप्त होंगे. असल में सरकार सही समय पर सही कदम नहीं ले पा रही है और जो भी कदम ले रही है उससे मंदी और लंबी जाएगी. यह कदम उस वक्त ही ले लेना चाहिए था जब अर्थव्यवस्था तेजी से आगे बढ़ रही थी. अब जब सरकार का राजस्व कमजोर पड़ रहा है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था मांग नहीं कर रही है तब ऐसे निर्णय कितने लाभकारी होंगे इसके लिए हमेंं अगली तिमाही के नतीजों का इंतजार करना चाहिए. जीएसटी लागू होने के बाद से अप्रत्यक्ष कर संग्रह में वृद्धि दर में ऐतिहासिक गिरावट देखी गई. जीएसटी लागू होने से पहले अप्रत्यक्ष कर संग्रह की वृद्धि दर 21.33% थी. जीएसटी लागू होने के बाद 2017-18 में घटकर 5.80% ही रह गई है. अब जब सरकार के पास बजट नहींं होगा तब वह दो काम कर सकती है. पहला कि वह खर्चों में कटौती करें जोकि इस समय आर्थिक सुस्ती को और बढ़ाने का काम करेगा. दूसरा वह बाजार से कर्ज लेकर अर्थव्ययवस्था में खर्च करे. लेकिन चुनौती यह हैै कि जब सरकार बाजाार में कर्ज लेने जाएगी तो कर्ज की मांग में वृद्धि के कारण, कर्ज की लागत में वृद्धि देखी जाएगी और इस स्थिति में निजी निवेश पर प्रभाव पड़ेगा.
अब प्रश्न यह है कि क्या किया जाना चाहिए था? मेरा मानना है कि इस आर्थिक सुस्ती का हल कृषि क्षेत्र में ढूंढा जाना चाहिए था. मांग और खपत के कारण आई आर्थिक सुस्ती की बुनियाद कृषि क्षेत्र में चल रही अप्रत्याशित गिरावट के कारण आई है. नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2011 से लेकर वर्ष 2016 तक कृषि विकास दर 0.5% औसतन रही है. अब आप सोचिए कि वह क्षेत्र जो देश की 50% सेे अधिक आबादी को शामिल करता है जब वह इतन कम दर से वृद्धि करेगा तो उसमें शामिल लोगों की आय में कितनी वृद्धि होगी ? दलवई समिती ने 2016 में एक रिपोर्ट पेश की थी जिनके अनुसार किसानों की आय दोगुनी करने के लिए 10.4% की दर से बढ़ोत्तरी होनी चाहिए. लेकिन वर्तमान कृषि दर घटकर 2% हो गई है. आज सुस्ती के दौर में महत्वपूर्ण यह है कि कृषि में सार्वजनिक क्षेत्र के निवेश को बढ़ावा दिया जाए. भारतीय रिज़र्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार 2011-12 और 2016-17 के बीच कृषि में सार्वजनिक क्षेत्र का निवेश सकल घरेलू उत्पाद के 0.4 प्रतिशत के आसपास रहा है. यह देखते हुए कि देश की लगभग आधी आबादी कृषि पर निर्भर है. यह स्थिति बताती है कि हमारे देश में कृषि की जानबूझ कर सरकारों द्वारा अनदेखी की गई. मुझे नहीं लगता कि बिना पर्याप्त सरकारी निवेश के कोई भी अर्थशास्त्री कृषि क्षेत्र में अचानक से दोगुनी आय वाले चमत्कार की उम्मीद कर सकता हैै. खेती में निवेश नहीं किया जा रहा है क्योंकि देश में इस आर्थिक सोच को प्रभावी बनाया गया है कि खेती आर्थिक गतिविधि नहीं है और इसमें निवेश के बजाय हमें मैन्युफैक्चरिंग और सर्विस सेक्टर पर ध्यान देना चाहिए. असल में इस सोच के पीछे एक तर्क यह है कि आने वाले समय में किसान जितना कमजोर होगा, देश में एग्रीकल्चर कारपोरेशन यानी कि कारपोरेट के जरिए खेती करने की प्रक्रिया को उतना ही बल मिल सकेगा. क्योंकि जब भी अर्थव्यवस्था में सुस्ती आती है तब सरकार तुरंत कारपोरेट जगत के लिए बड़े पैकेज के साथ आ जाती है. उसे लगता है कि कारपोरेट जगत का घाटा अर्थव्यवस्था के लिए सबसे बड़ा घाटा है. लेकिन यही एक और तथ्य सामने आता है. OCEID-ICRIER की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2000 से लेकर वर्ष 2017 के बीच में किसानों को सही दाम न मिलनेे की वजह से 45 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है. लेकिन सरकार किसानों के लिए कारपोरेट की तरह राहत पैकेेेज के साथ नहीं आती है. डॉक्टर मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने 2008-09 में किसानों को राहत देते हुए कर्ज माफी की थी. यही वह दौर था जब कृषि वृद्धि दर 8% से अधिक हो गई थी. सरकार तुरंत यह तर्क देती है कि मैन्युफैक्चरिंग और सर्विस सेक्टर में गिरावट के कारण बड़े स्तर पर लोगों के रोजगार खत्म हो रहे हैं. बिल्कुल सही तर्क है लेकिन सरकार के ही अपने आंकड़े यह भी जिक्र कर रहे हैं कि कृषि क्षेत्र में भी नोटबंदी के बाद से बड़े स्तर पर लोगों के रोजगार खत्म हो रहे हैं. एनएसएसओ की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2011-12 से 2017-18 के बीच में कुल 3.4 करोड कैजुअल श्रमिकों ने अपने रोजगार गवाएं है और इनमें से 3 करोड़ किसान थे. अब क्या कृषि क्षेत्र यह तर्क नहीं रख सकता है कि हमारे यहां भी चल रही गिरावट के कारण लोगों को रोजगार नहीं मिल पा रहा है इसलिए सरकार को हमारे लिए भी बड़े पैकेज का ऐलान करना चाहिए. इस बार की कृषि बजट में कृषि क्षेत्र के लिए कुल 1,30,485 करोड रुपए का प्रावधान मौजूद है. लेकिन निवेश के रूप में इसका दसवां हिस्सा भी मौजूद नहीं है. 75 हजार करोड़ रुपए तो सिर्फ प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना में खर्च हो जाएंगे.
सरकार के पास यह सही अवसर था जब वह ग्रामीण अर्थव्यवस्था के जरिए चल रही सुस्ती को दूर कर सकती थी. जब सरकार कृषि आय बढ़ाने पर जोर देती तो ग्रामीण इलाकों में खपत और मांग में वृद्धि होती. ग्रामीण मांग और खपत से औद्योगिक विकास को एक नई ऊर्जा मिल सकती थी. इसके लिए सरकार ‘प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना’ की राशि दोगुनी कर सकती थी. अभी भी वक़्त है जब ग्रामीण इलाकों में सरकार को कैपिटल एक्सपेंडिचर बढ़ाना चाहिए. इससे अर्थव्यवस्था में पूंजी निर्माण भी होगाा और लोगों की आय भी बढ़ेगी.
लेखक- विक्रान्त सिंह
संस्थापक एवं अध्यक्ष
फाइनेंस एंड इकोनॉमिक्स थिंक काउंसिल
काशी हिंदू विश्वविद्यालय।