
देश की राजधानी दिल्ली का दम घुट रहा है। आज महज़ दिल्ली ही नहीं बल्कि देश के तमाम बड़े महानगरों में वायु प्रदूषण की वजह से लोगों का दम घुट रहा है। लेकिन हमारे नीति-निर्माताओं या फिर हमारे द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधियों के पास इस पूरी समस्या के हल के रूप में सिर्फ दो उपाय ही सूझते हैं। पहला की इस पूरी समस्या को किसानों की पराली तक सीमित कर दिया जाए और समाधान के रूप में दिवाली में पटाखों पर प्रतिबंध लगा दिया जाए। इसके अलावा कोई भी ठोस स्थाई और दीर्घकालीन नीति इनके पास नहीं है। जहरीली हो चुकी हवा की समस्या को महज पराली जलाने तक सीमित कर देना, एक बड़े षड्यंत्र का हिस्सा है। असल में जहरीली हो रही हवा के पीछे के मूल कारणों पर हमारे नेता जवाब देना नहीं चाहते। वह पराली और दिवाली के पटाखों के इर्द-गिर्द पूरी चर्चा को समेट कर अपने मूल दायित्व से बचकर निकलना चाहते हैं।
सच्चाई यह है कि वर्ष 2018 में दिल्ली की औसत ‘एयर क्वालिटी इंडेक्स’ 204 और वर्ष 2019 में 195 रही थी। यानी कि पूरे साल दिल्ली वायु प्रदुषण के रेड ज़ोन में थी। एक्यूआई का 151-200 के बीच होना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना जाता है। अब यहां मूल प्रश्न यह है कि क्या पूरे वर्ष पराली जलाई जाती है और पटाखे फोड़े जाते हैं? जवाब है नहीं। तो फिर प्रदूषण की पूरी जिम्मेदारी किसानों की पराली और दिवाली के पटाखों की कैसे हुई?
पराली एक गंभीर समस्या है लेकिन सिर्फ यही एक मात्र कारण है, कहना ग़लत है। आज पराली जलाने के लिए किसानों के ऊपर भारी जुर्माना और कानूनी कार्रवाई करने वाली राज्य सरकारें, क्या इस प्रश्न का जवाब दे सकती है कि किसानों के पास पराली ना जलाने का वैकल्पिक रास्ता क्या है? अगर वैकल्पिक रास्ता है तो फिर किसान इसका खर्च कहां से बहन करेगा? क्या सरकार एमएसपी में पराली न जलाने पर आने वाले खर्च को शामिल करती है? बिल्कुल नहीं। तो फिर पहले से ही आर्थिक तंगी झेल रहे किसान से एक अतिरिक्त खर्च बहन करने की जबरदस्ती क्यों की जानी चाहिए? सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में यह स्पष्ट कहा था कि राज्य सरकारें किसानों को पराली जलाने के लिए एक मदद राशि उपलब्ध कराएंगे। लेकिन किसी भी राज्य ने इस निर्णय को लागू नहीं किया और किसानों के ऊपर कानूनी और दंडात्मक कार्रवाई चलती रही।
हर वर्ष दिल्ली सरकार अपने यहां बढ़ते प्रदूषण के लिए बड़ी सामान्य भाषा में किसानों को जिम्मेदार ठहरा देती है, लेकिन सच यह है कि दिल्ली में बढ़ते वायु प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण वहां गाड़ियों से निकलने वाला जहरीला धुंआ है। दिल्ली सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में कुल 1.09 करोड़ वाहन पंजीकृत है और हर 1000 की आबादी पर 598 वाहन मौजूद हैं।

दिल्ली में बढ़े हुए वायु प्रदूषण का दूसरा सबसे बड़ा कारण बढ़ती आबादी है। नीति आयोग के आंकड़ों के अनुसार दिल्ली में हर एक स्क्वेयर किलोमीटर पर 11,297 लोगों की आबादी है। यह ना कि सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया में भी जनसंख्या घनत्व में सबसे अधिक है। पिछले दो दशक में दिल्ली की आबादी 93% की अप्रत्याशित दर से बढ़ी है। वर्ष 2000 में दिल्ली की कुल आबादी 1,56,92,000 थी। आज वर्ष 2020 में यही आबादी बढ़कर 3,02,91,000 पहुंच चुकी है। इस बढ़ी हुई आबादी के सरकारी कुप्रबंधन ने भी प्रदुषण की समस्या को विकराल किया है।
‘स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर 2020’ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर वर्ष 16 लाख से अधिक लोगों की मौत वायु प्रदूषण से हो जाती है। यह संख्या कोरोना जैसी वैश्विक महामारी से होने वाली मौतों की तुलना में कई गुना है। लेकिन हमारे नेता यहां चुप्पी साध लेते हैं। आज भारत वायु प्रदुषण के रूप में एक बड़ी जानलेवा समस्या की दलहीज पर खड़ा है। वक्त रहते अगर इसका समाधान नहीं निकाला गया तो परिणाम बेहद भयावह हो जाएंगे।
पटाखों पर प्रतिबन्ध या फिर किसानों को भारी जुर्माना से चीजें ठीक नहीं होने वाली हैं। हमारे नेता ऐसा करके बस अपनी जिम्मेदारी से भाग रहे होतें हैं। गाड़ियों और कारखानों से निकलते धुएं, सिकुड़ते जंगल, बढ़ती आबादी और सरकारों के कुप्रबंधन पर जनता के प्रति अपनी जवाबदेही को पराली और पटाख़े जैसे विषयों पर बहस के जरिए बचा रहे होते हैं। जनता को भी अब चुनावों में “साफ हवा” को जरूरी मुद्दे के रूप में लाना होगा, नहीं तो बहुत देर हो जायेगी। भारत के अधिकांश शहर जहरीली गैसों के चैंबर के रूप में हो जाएंगे।
(लेखक विक्रांत निर्मला सिंह काशी हिंदू विश्वविद्यालय के छात्र और फाइनेंस एंड इकोनॉमिक्स थिंक काउंसिल के संस्थापक अध्यक्ष है)