नोट छापकर अर्थव्यवस्था क्यों नहीं चलाई जाती?

किसी भी अर्थव्यवस्था की एक बुनियाद मुद्रा होती है। देश में मुद्रा छापने की पूरी जिम्मेदारी केंद्रीय बैंक के पास होती है। केंद्रीय बैंक केंद्र सरकार के परामर्श से कार्य करता है। भारत में भी यही व्यवस्था है। अगर आप सामान्यतः चर्चाओं को ध्यान दें तो अक़्सर यह सुनने को मिल जाता है कि वर्तमान विषम परिस्थिति में सरकार को नोट छापकर अर्थव्यवस्था को सुचारू ढंग से चलाना चाहिए। हम अक्सर यह सवाल सुनते रहते हैं कि देश की करोड़ों आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करती है तो क्यों नहीं सरकार पैसे छाप कर इनकी मदद करती है? आपको अगर इस सवाल के जवाब में कहा जाए कि नोट छाप कर गरीबी दूर करने की इस नीति से कोई फायदा नहीं होगा और गरीब तबका गरीब ही रहेगा तो यह जवाब एक बड़ी आबादी को हैरतअंगेज लगेगा। पैसा आने से कोई गरीब ही कैसे सकता है? परंतु यह सत्य है। केंद्रीय बैंक और सरकार बेहद विलक्षण परिस्थितियों में नोट छापने के प्रस्ताव पर विचार करती है। लेकिन ऐसा क्यों? क्या रहस्य है कि सरकार और केंद्रीय बैंक नोट छापने की नीति से बचना चाहते हैं?

मुद्रा के अतिरिक्त छपाई में क्या दिक्कत है?

सबसे पहला कारण है महंगाई। अत्यधिक नोट छाप कर अर्थव्यवस्था चलाना एक किस्म की महंगाई है। अर्थव्यवस्था में मुद्रा आपूर्ति के बढ़ने के साथ ही महंगाई दस्तक दे देती है और रुपए की खरीद शक्ति (परचेसिंग पावर) घट जाती है। इस घटना को एक उदाहरण के रूप में समझते हैं। 1000 लोगों के एक कस्बे में आधी आबादी गरीब है। सरकार यह निर्णय लेती है कि वह नोट छाप का आधी आबादी को देगी और गरीबी से बाहर निकालेगी। वह प्रति व्यक्ति ₹5000 प्रति महीना देने का निर्णय लेती है। यानी कि 25 लाख रुपया सालाना (500×5000= 25,00,000) मुद्रा आपूर्ति उस कस्बे में बढ़ जाएगी। अब क्या होगा? सब के पास पैसे होंगे। सब बाजार में वस्तु खरीदने जाएंगे। बाजार में मांग बढ़ेगी और बढ़ती मांग को देखकर विक्रेता वस्तुओं के दामों में वृद्धि करेगा और ₹100 की चीज ₹150 और ₹200 में बिकने लगेगी। बिना आपूर्ति बढ़ाए वस्तुओं के दामों में वृद्धि की वजह से रुपए की खरीद शक्ति घट जायेगी। आप 1 रुपए से पहले जितना सामान खरीद पाते थे अब उतना नहीं खरीद पाएंगे। इसकी वजह से पैदा हुई महंगाई आपके आर्थिक स्तर में कोई सुधार नहीं करेगी, जबकि आपको सरकार से मुफ्त पैसे भी मिल रहे होंगे। यानी आप की वास्तविक आय पूर्व की भांति ही बनी हुई है। इस घटना की वज़ह से लेकिन बाजार में महंगाई आ चुकी होगी।

अब इस नीति का दूसरा प्रभाव समझिए। 1 वर्ष के अंदर अप्रत्याशित मांग की वृद्धि को देखते हुए उत्पादकों और विक्रेताओं ने आपूर्ति बढ़ाने का निर्णय ले लिया क्योंकि उनको पिछले वर्ष लाभ हुआ था। लेकिन वह यह नहीं जानते हैं कि सरकार इस वर्ष नोट नहीं छाप रही है। अब यह आधा आबादी दोबारा अपनी पुरानी स्थिति में होगी। यानी कि सीमित आय। लोग अब महंगे दामों पर वस्तु नहीं खरीदेंगे। जो वह पिछली बार अचानक से हुई आय वृद्धि की वजह से कर पा रहे थे। इसका परिणाम यह होगा कि एक समय के बाद बाजार में सुस्ती आ जाएगी। मंदी जैसी स्थिति को देखते हुए विक्रेताओं को दाम घटाने पड़ेगें और कम दाम पर वस्तुओं को बेचना पड़ेगा। यानी कि उनको घाटा होने लगेगा। इस स्थिति को देखते हुए वह आने वाले वर्ष में रिस्क लेने के बजाय अपनी जमा पूंजी को बचाने का प्रयास करेंगे। परिणामस्वरूप बाजार में निवेश घटने लगेगा। बाजार सुस्ती एवं मंदी की तरफ बढ़ जाएगा।

इस उदाहरण से हम दो चीजें बहुत स्पष्ट समझते हैं कि नोट छापने की नीति महंगाई लाती है और अगर यह नियमित नहीं की गई तो मंदी और सुस्ती लाती है। यानी कि दोनों ही तरीके के अपने नुकसान हैं। नियमित रूप से नोट छाप कर बाजार में मांग पैदा करने की विधि महंगाई को सर्वोच्च स्तर पर ले जाएगी तो अनियमितता सुस्ती की तरफ। इस घटनाक्रम को समझने के लिए दुनिया में ऐसे तमाम उदाहरण मौजूद हैं। अधिक नोट्स छापने की विधि की वजह से जिंबाब्वे, ग्रीस, वेनेजुएला आदि जैसे देश दिवालिया घोषित कर दिए गए। इसलिए कोई भी अर्थव्यवस्था नोट छाप कर अमीर नहीं हो सकती है। वर्तमान समय में अमेरिका एक अच्छा उदाहरण है। अमेरिका ने 2020 में महामारी के तुरंत बाद 3 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर अतिरिक्त छापे जो कि उनके जीडीपी का तकरीबन 15 फ़ीसदी था। अमेरिका के केंद्रीय बैंक ‘फेडरल रिजर्व’ ने वर्तमान समय में महंगाई की आहट का जिक्र किया है। अब इसका प्रभाव दुनिया के अन्य अर्थव्यवस्थाओं पर दिखने की बात कही जा रही है।

तो क्या मुद्रा की छपाई बिल्कुल नहीं होनी चाहिए?

ऐसा नहीं कि नोट बिल्कुल नहीं छापा जा सकता है। हर वर्ष एक संतुलित स्तर पर नोट छापे जाते हैं और अर्थव्यवस्था चलाई जाती है। लेकिन इसकी बुनियाद में उत्पादन होना चाहिए। बीते मई महीने में कोटक महिंद्रा बैंक के मुख्य कार्यकारी अधिकारी उदय कोटक ने सरकार और आरबीआई को नोट छापने की सलाह दी थी। उनका कहना था कि परिस्थितियां ऐसी हो चुकी है कि अगर अब नोट नहीं छापा गया तो कब छापा जाएगा।  तो क्या भारत ऐसी परिस्थिति में है जहां नोट छाप कर अर्थव्यवस्था को चलाया जा सकता है? वर्तमान समय को देखते हुए इसका जवाब हां होगा। क्योंकि वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था में उत्पादन मौजूद है लेकिन मांग नहीं है और वर्तमान महंगाई आपूर्ति और मांग की वजह से नहीं आई है। इसके अलग कारण है। इसलिए सरकार और केंद्रीय बैंक छोटी अवधि के लिए नोट छापने की नीति पर काम कर सकते हैं। लेकिन यह कार्य बेहतरीन वित्तीय प्रबंधन के बीच किया जाना चाहिए, ताकि महंगाई को एक सीमा से बाहर ना निकलने दिया जाए।

इसके लिए सरकार अपनी महत्वकांक्षी योजनाओं का सहारा भी ले सकती है। जैसे बड़े राजमार्गों का निर्माण। इस कार्य के लिए अगर सरकार नोट छापने की नीति पर विचार करती है तो एक सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। ऐसा इसलिए क्योंकि देश के लिए एक संपत्ति तैयार होगी और अतिरिक्त मुद्रा के बदले कुछ उत्पादन हो रहा होगा। इसी क्रम में मनरेगा का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। यह योजना ग्रामीण स्तर पर पैसा पहुंचा सकती है। इस योजना के जरिए गांव की आधारभूत संरचना को संवारने का कार्य किया जा सकता है और लोगों के हाथ में पैसा पहुंचाया जा सकता है।

वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था का पहिया थम गया है। इसको एक मजबूत धक्के की जरूरत है जो सरकार ही दे सकती है। सरकार अगर ऊपर की दोनों योजनाओं पर विचार करें तो ऐसा किया जा सकता है। साथ ही साथ लोगों के हाथों में सीधे पैसा उपलब्ध कराने पर भी विचार करना चाहिए। नीचे की 30 करोड़ गरीब आबादी को 1500 रुपए का भुगतान प्रति महीने करना चाहिए। इसके लिए सरकार को 2,70, 000 करोड़ रुपए की जरूरत पड़ेगी। यह कुल जीडीपी का तकरीबन 1.5 फिसदी होगा। ऐसा करने से अर्थव्यवस्था का पहिया फिर दोबारा चालू हो जाएगा। जब लोगों के हाथ में पैसा जाएगा तो बाजार में मांग करेंगे। जब बाजार में मांग करेंगे तो उत्पादन में बढ़ोतरी होगी। उत्पादन में बढ़ोतरी होने से निवेश में वृद्धि होगी। निवेश में वृद्धि होने से नए रोजगार के अवसर उत्पन्न होंगे और अर्थव्यवस्था में आय सृजन होगा। इससे बाजार में मांग बनेगी और यह चक्र दोबारा चलने लगेगा। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वर्तमान समय की सबसे बड़ी आर्थिक समस्या रोजगार और आय का ना होना है। साथ ही साथ आरबीआई अर्थव्यवस्था में सुधार के बीच मुद्रा प्रवाह को रोकने के प्रयास भी कर सकता है जिससे अप्रत्याशित महंगाई ना आए। सरकार को चाहिए कि वर्तमान समय में राजकोषीय घाटे की परवाह किए बिना ऐसी किसी बड़ी राजकोषीय नीति का ऐलान करें।

4 thoughts on “नोट छापकर अर्थव्यवस्था क्यों नहीं चलाई जाती?”

  1. अर्थव्यवस्था में पैसे की पर्याप्त आपूर्ति बनाए रखने के लिए आरबीआई न्यूनतम रिजर्व सिस्टम के अनुसार पैसे छापता है। मिनिमम रिजर्व सिस्टम के तहत आरबीआई को 200 करोड़ रुपये का न्यूनतम रिजर्व रखना होता है जिसमें सोने का सिक्का और सोने का बुलियन और विदेशी मुद्राएं शामिल होती हैं। इसीलिए आरबीआई पैसा छाप सकती है पर उसको मिनिमम रिजर्व सिस्टम के तहत 200 करोड रुपए का न्यूनतम रिजर्व भी रखना होगा.. पैसा छापने के साथ-साथ महंगाई को दस्तक देता है और जनरल पब्लिक की परचेसिंग पावर को कम करता है. आपके यह लेख से मैं सहमत हूं. वर्तमान समय की समस्याओं को ध्यान में रखते हुए आरबीआई को राजकोषीय घाटे को ध्यान में ना रखते हुए पैसा छापने चाहिए जिससे बिलो द पावर्टी लाइन भारतीय को और लोअर मिडल क्लास फैमिली के हाथ में सीधे-सीधे उपयुक्त राशि किसी योजना का आयोजन के तहत करना चाहिए जिससे बाजार में मांग होगी और भारत का आर्थिक पहिया दोबारा से चालू हो जाएगा.

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