मीडिया की भूमिका पर उठते सवाल!

मीडिया एक मज़बूत लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। पिछले 70 सालों में मीडिया ने भारत के न्यायोचित निर्माण में एक बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेकिन पिछले कुछ सालों में डिजिटल मीडिया का जो रूप देखने को मिला है वो भयावह है। डिजिटल मीडिया जगत ने एक ऐसा सुनियोजित कृत्रिम वातावरण बना दिया है जहां स्टूडियो में बैठे कथाकथित विद्वान लोग आपस में बात नहीं मानो कुश्ती करने को आते है। जिस प्रकार से टीवी के माध्यम से किसी एक पार्टी के विचारों को तवज्जो देते हुए पत्रकार सरकार के प्रवक्ता के रूप में दिख रहे है, वो लोकतंत्र की नींव पर कुठाराघात करने जैसा है।

जिस डिजिटल मीडिया ने खोजी कुत्ते की तरह सरकारों के काले कारनामों का चिट्ठा खोलकर उन्हें सिंहासन से उतारने का काम किया था, वह आज सत्ता के सामने घुटनों पर बैठी दिखाई दे रही है।किसी एक राजनीतिक पार्टी की विचारधारा को खुश करने के प्रयास में वह अपने मूल्य कार्य से ही विचलित हो गई। वह भूल गई की मीडिया का कार्य सरकार को खुश करना नहीं बल्कि सरकार और लोगों की बीच की दूरी को कम करने का था, सरकार के अच्छे कामों को लोगों तक पहुंचाने का था और सरकार द्वारा लिए गए निरंकुश निर्णयों पर अंकुश लगाने का कार्य भी मीडिया का ही था। पर अब मीडिया अपने मुख्य कामों से इतर होकर एक पार्टी की दास बनती दिख रही है। जिस मीडिया को सरकार के द्वारा लिए गए निर्णय का आकलन करके उसे जनता के सामने रखना था, आज वह सरकार से प्रश्न पूछने की बजाए सरकार के प्रवक्ता के रूप में दिख रही है। हालाँकि इससे उनकी वैचारिक दुकाने भी चमक रही है, लेकिन यह करके डिजिटल मीडिया ने अपने अस्तित्व के साथ ही समझौता किया है।

असम और बिहार भयंकर बाढ़ की चपेट में थे, कोरोना केसों की दैनिक संख्या एक लाख के करीब पहुंच रही थी, बहुचर्चित जम्मू कश्मीर क़ैद था, क्राइम ब्यूरो ने झकझोर देने वाले आँकड़ों दिये, किसान व्यापक रूप से सड़कों पर सरकारी फ़रमान का विरोध कर रहे थे, रोजगार के लिए युवा यूटयूब का सहारा लेने को मजबूर हो रहे थे और फिर सड़कों पर आने को भी मजबूर हुआ क्यूँकि देश की प्रतिष्ठित डिजिटल मीडिया के लिए इन सबसे इतर बॉलीवुड जगत में हो रही हलचल ज़्यादा ज़रूरी थी।

पत्रकारिता जगत यह समझना होगा कि भारत एक राष्ट्र के तौर पर निर्माणाधीन अवस्था में है और भारतीय राजनीति एक ऐसे बुरे दौर से गुजर रही है जब केंद्र में सरकार की अनुचित नीतियों का विरोध करने के लिए कोई मजबूत विरोधी दल मौजूद नहीं है। ऐसी स्थिति में एक वैचारिक मीडिया की नैतिक जिम्मेदारी पहले से काफी ज़्यादा बढ़ जाती है। ऐसे समय में एक ज़िम्मेदार मीडिया को अलग चरित्र दिखाने की आवश्यकता थी। केंद्र में सक्रिय विरोधी दलों के अभाव में मीडिया को एक सकारात्मक विरोधी के तौर पर सरकार के कार्यों का अवलोकन और आवश्यकता पड़ने पर आलोचना करनी थी। ऐसे में मीडिया जगत के पास एक ऐसा अवसर था कि वह लोकतंत्र के मज़बूत स्तंभ के तौर पर एक सक्षम विरोधी के तौर पर अपनी विश्वसनीयता पर चार चांद लगा सकता था। लेकिन मीडिया ने सत्ता की पलकों पर बैठना स्वीकार किया।

अब चूँकि सरकार निरंकुश होती दिखाई दे रही है और अब सरकार की नीतियों को जनता खुली तपिश दे रही है, तो यह निश्चित है कि इसकी चिंगारी आज नहीं तो कल मीडिया में बैठे लोगों तक जरूर पहुंचेगी और उनसे पूछेगी कि आखिर पत्रकारिता जगत में आने से पहले आप ने जिस नैतिकता की शपथ ली थी क्या आपने उस नैतिकता aur अपनी पत्रकारिता के पेशे से न्याय किया? जिस परिवर्तन की उम्मीद जनता ने आप से की थी क्या आपने उस विश्वास का मान रखा है? क्या आपको जो विराट शक्तियां मिली थी आपने उन शक्तियों का प्रयोग लोकहित में किया है? यह सब प्रश्न उनकी विश्वसनीयता पर एक ऐसा बट्टा लगाएँगी जिन्हें सुधारने में शायद कई दशक लग जाएंगे।

डिजिटल मीडिया जगत एक बार पुनः अपनी भूमिका पर विचार करना चाहिए। उन्हें यह समझना होगा कि सरकार हर 5 साल पर आती है और जाती हैं लेकिन पत्रकारिता पर जो विश्वास लोगों ने पिछले एक दशक में बनाया है, यदि वह एक बार टूट गया तो उसे दुबारा बनाने में दशकों लग जाएँगे।


जिस खोजी पत्रकारिता ने आसाराम, शारदा घोटाले, अतीक अहमद जैसे ना जाने कितने बड़े- बड़े रहनुमाइशों का पर्दाफाश करके जो महत्ता, विश्वसनीयता और लोकप्रियता हासिल की थी क्या वह मीडिया अब सत्ता की चौखट पर इतनी कमजोर हो गई है कि वो अब सत्ताधारी से कठिन राजनीतिक प्रश्नों की बजाय आम के प्रकार और गुठलियों के बारे में पूछने तक सीमित हो गये है।

मीडिया जगत को समझना होगा कि जब जनता परिवर्तन की मांग करते हैं तो वो मांग सिर्फ राजनीतिक सिंहासन खाली करने की नहीं बल्कि ऐसी निरंकुश पत्रकारिता को भी धाराशाई कर देती है।

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