इस चुनाव में किसानों को ढूंढिए, आखिर वे हैं कहां?

अप्रैल का महीना है और मौसम गर्म होने लगा है. यह गर्मी चुनाव की वजह से ज्यादा दिखाई पड़ रही है. हर राजनैतिक दल चुनावी रैलियां कर रहे हैं और देश को उम्मीदों की एक नई रस्सी पकड़ा रहे हैं. प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के चुनावी भाषणों को गौर से सुनिए तो वह चौकीदार, हिंदू, और पाकिस्तान से आगे निकल ही नहीं पा रहे हैं. यह अपने आप में एक विचित्र चुनाव है जहां किसानों और उनके मुद्दों को राजनेताओं के भाषणों में ढूंढना पड़ रहा है. यह स्थिति भाजपा नेताओं की चुनावी भाषणों में देखी जा सकती है.

अगर पिछले साढे 4 वर्षों में किसानों के जीवन में अभूतपूर्व परिवर्तन आया है तो प्रधानमंत्री जी को हर रैली में नई उम्मीदों के बजाय किसानों को लेकर किए गए वादों पर चर्चा करना चाहिए. प्रधानमंत्री जी को बताना चाहिए कि उनकी सरकार ने किसानों की आय में कितनी वृद्धि कर दी है? बताना चाहिए कि प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के अंतर्गत देश के अंतिम किसान के खेत तक पानी पहुंचा है या नहीं पहुंचा है? उन्हें बताना चाहिए कि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के अंतर्गत निजी कंपनियों को इतना बड़ा फायदा कैसे हो रहा है? उन्हें बताना चाहिए कि किसानों को लागत का डेढ़ गुना दाम देने वाले वादे का क्या हुआ? लेकिन वह अभी हिंदू-पाकिस्तान करने में व्यस्त है. यह भारतीय लोकतंत्र के लिए चिंतनीय विषय है कि जिस देश में 50% से अधिक लोग कृषि आधारित कार्यों पर निर्भर है वहां की राजनीति में कृषि ही केंद्र बिंदु नहीं है.

विपक्ष के रूप में देखें तो कांग्रेस ने घोषणा पत्र जारी कर किसानों के संबंध में घोषणाएं कर एक मामूली बढ़त जरूर लिया है परंतु विपक्ष का कार्य यह नहीं है कि 5 साल बाद वह किसानों को उनके जीवन में आए परिवर्तन का हिसाब दे. यह कार्य सत्ता पक्ष के पास होता है. लेकिन हमारे यहां स्थिति बिल्कुल उल्टा चल रही है. विपक्ष से पूछा जा रहा है कि पिछले 70 वर्षों में आप ने किसानों के लिए क्या किया? उन 70 वर्षों में नेहरू जी और इंदिरा गांधी के साथ-साथ लाल बहादुर शास्त्री, चौधरी चरण सिंह और नरसिम्हा राव जैसे नेताओं से भी हिसाब मांगा जा रहा है लेकिन यह नहीं बतलाया जा रहा है कि पिछले 5 वर्षों में किसानों की स्थिति में सबसे अधिक गिरावट क्यों आई है?

कांग्रेस के घोषणा पत्र को अगर देखें तो उसमें कृषि के संदर्भ में 22 बिंदुओं को चिन्हित किया गया है. कांग्रेस के घोषणा पत्र में जो एक नई चीज दिख रही है वह स्वतंत्र किसान बजट की वकालत करना है. दूसरा विषय जो स्वागत योग्य है वह कर्ज में दबे किसान को अपराधिक दायित्व के अंतर्गत ना रखते हुए उसे सिविल दायित्व में बदलने की बात कही गई है. कांग्रेस के घोषणापत्र का जिक्र है और वह अगर सत्ता में आई तो करेगी या नहीं करेगी यह देखना होगा. लेकिन वर्तमान में पिछले 5 वर्ष का हिसाब कहां है?

असल में अब इस देश का किसान एक आर्थिक युद्ध लड़ रहा है जहां उसे अब सिर्फ संघर्ष ही करना है. ऐसा इसलिए क्योंकि वह युद्ध सरकार के साथ-साथ देश के बड़े पूंजीपतियों के खिलाफ लड़ रहा है. किसानों के संदर्भ में बन रही सरकारी नीतियां कुछ चंद पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने के उद्देश्य से कार्य कर रही है. लक्ष्य बड़ा स्पष्ट है कि किसानों की जमीन पूंजीपतियों को उपलब्ध कराना है और इसके लिए किसानों को कमजोर करना अति आवश्यक हो जाता है. इसका परिणाम भी हम देख सकते हैं. वर्ष 1995 से 2015 के बीच कुल 3,05,000 किसानों ने आत्महत्या की है. इतने लोग तो एक जंग में भी शहीद नहीं होते. यह आंकड़े गृह मंत्रालय ने ही जारी किए हैं. वर्ष 2015 के बाद का कोई भी आंकड़ा किसानों की आत्महत्या को लेकर मौजूद नहीं है. मोदी सरकार ने किसानों की बिगड़ती स्थिति को छिपाने के लिए किसानों की बदहाली से संबंधित आंकड़े लाना ही बंद कर दिए. ना किसानों की आत्महत्या पर कोई रिपोर्ट आएगी और ना ही आपको और हमको पता चलेगा कि देश में किसानों की स्थिति कितनी बिगड़ चुकी है.

भाजपा और कांग्रेस की राजनैतिक लड़ाई जो भी हो पर आर्थिक नीतियों के मामले में यह एक जैसे ही दिखते रहे हैं. आज जब कांग्रेस की जमीन राजनीतिक रूप से कमजोर हुई तो वह अचानक मजदूर और किसानों की आवाज को उठाने की कोशिश कर रही है और यह प्रशंसनीय है कि विपक्ष के रूप में वह किसानों की बिगड़ती स्थिति को राजनीतिक मुद्दा बनाने की कोशिश कर रही है. कांग्रेस किसानों के मुद्दे पर इस चुनाव में बढ़त ले चुकी है क्योंकि जब देश के प्रधानमंत्री किसानों को हिसाब देने के बजाय उन्हें राष्ट्रभक्ति सिखा रहे हैं तो किसी एक पार्टी से किसानों के मुद्दे पर सुनना अच्छा प्रतीत होता है. शायद प्रधानमंत्री जी को यह नहीं पता कि इस देश के किसान को किसी नेता से राष्ट्रभक्ति सीखने की जरूरत नहीं है. देश के किसान आप से पिछले 5 साल का हिसाब मांग रहे हैं और आप जवाब के रूप में भारत माता की जय का नारा पकड़ा दे रहे हैं. समझ में नहीं आता कि जब आपका किसान ही नहीं बचेगा तो भारत माता की जय कैसे हो जायेगी?

पिछले 5 वर्षों में आपने हर वर्ष एक नए तरीके के झूठ को किसानों के सामने पेश किया है. 2014 से पहले हर चुनावी सभा में प्रधानमंत्री जी स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने का जिक्र किया करते थे परंतु सत्ता में आने के बाद से वर्ष 2015 में यही सरकार कोर्ट में हलफनामा दाखिल करती है कि अगर हमने स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू कर दिया तो इससे बाजार प्रभावित हो जाएगा. प्रधानमंत्री जी को इस प्रश्न का जवाब देना चाहिए कि किसानों का पूरा जीवन ही बर्बाद हो रहा है और आपको आपके बाजार की चिंता क्यों दिख रही थी? क्या इस देश का किसान कभी मुनाफे में नहीं रह सकता है?

वर्ष 2018 में सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य को लागत का डेढ़ गुना करने का भी दावा कर दिया. तो क्या सच में न्यूनतम समर्थन मूल्य लागत का डेढ़ गुना है? लागत पर डेढ़ गुना समर्थन मूल्य देने के वादे पर भी सरकार ने किसानों को एक सफेद झूठ बोला है. स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार C2 प्रणाली के जरिए किसानों को उनके पैदावार की लागत मिलनी चाहिए पर सरकार ने ए2 प्लस फैमिली लेबर के आधार पर किसानों को दिया है. लेकिन मीडिया के जरिए सरकार ने यह ढिंढोरा पीट दिया कि वह आजादी के बाद से पहली सरकार है जिसने यह करके दिखा दिया. इस सरकार ने प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के नाम पर निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने का काम किया है और आजाद भारत की यह पहली कृषि बीमा नीति है जहां किसान अपने खून और पसीने की कमाई का एक हिस्सा पूंजीपतियों के बड़े-बड़े बीमा कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिए जमा कर रहा है. फसल नुकसान होने की स्थिति में जब वह दावा करता है तो यह निजी बीमा कंपनियां बैंकों के साथ मिलीभगत कर किसानों को लूटने का कार्य करती है. शायद यही कारण है कि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना अपने तय लक्ष्य से पीछे चल रही है और किसान अब इस योजना में पंजीकृत होने से बच रहे हैं. सरकार इस तथ्य पर मौन है कि आखिर क्यों किसान प्रधानमंत्री कृषि बीमा योजना से खुश नहीं हैं?

वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार 2050 तक भारत की आधी आबादी शहरी क्षेत्र की तरफ प्रस्थान कर जाएगी. इसका सीधा सा मतलब होगा कि कृषि क्षेत्र में 25.7% आबादी में गिरावट देखी जाएगी. वर्ल्ड बैंक यह रिपोर्ट 2 बुनियादी प्रश्न हमारे सामने रख रही हैं. पहला अगर कृषि क्षेत्र से पलायन इतने बड़े स्तर पर होगा तो देश की कृषि जरूरतों को कौन पूरा करेगा? दूसरा प्रश्न है कि इस बढ़ती बेरोजगारी के बीच क्या शहरी क्षेत्र आने वाली ग्रामीण आबादी को जगह देने के लिए उपयुक्त है? क्योंकि 100 स्मार्ट शहरों में से एक भी शहर का पता नहीं चल रहा है. इन दोनों ही बुनियादी प्रश्नों का जवाब आपको इस चुनाव में किसी नेता के जरिए सुनने को नहीं मिलेंगे. सत्ता पक्ष तो आपको बिल्कुल नहीं बता पाएगी क्योंकि उसका पूरा ध्यान चुनाव में बेवजह के मुद्दों को उठाने पर केंद्रित है.

मोदी जी का एक और वादा है जो किसानों को कहीं अधिक चुभ रहा है. मोदी जी ने कहा था कि 2022 तक वह किसानों की आय को दोगुना कर देंगे. कैसे कर देंगे इसको लेकर वह बिल्कुल नहीं बोलते हैं? सच्चाई यह है कि किसानों की आय में हो रही वृद्धि के अगर आंकड़ों को देखें तो अक्टूबर से दिसंबर 2018 की तिमाही में किसानों की आय वृद्धि दर पिछले 14 वर्ष में सबसे कम रही है. आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 की रिपोर्ट कहती है कि कृषि क्षेत्र में 2.1% की दर से वृद्धि हो रही है को जो कि यूपीए के 10 सालों वाली सरकार सी भी कम है. कृषि के घरेलू सकल उत्पाद वृद्धि दर को देखें तो पिछले 4 वर्षों में 2.5% की वृद्धि दर रही हैं जो कि यूपीए-2 के 5.2% से कम है. फिर अब यह कौन सा अर्थशास्त्र है जो इतनी कम वृद्धि दर पर भी 2022 तक किसानों की आय को दोगुना कर सकता है? यह अर्थशास्त्र तो नोटबंदी करने वाले और इसके फायदे गिनाने वाले प्रधानमंत्री जी ही बता सकते हैं.

वर्ष 1980-81 में कृषि क्षेत्र में 43.2 फ़ीसदी सरकारी निवेश हुआ करता था जो कि वर्ष 2016-17 में 18.8% हो गया है. सरकारी निवेश का कृषि क्षेत्र में घटना कहीं ना कहीं पूंजीवाद के एकाधिकार को कृषि क्षेत्र में बढ़ावा देने का पहला कदम है. किसान अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है और दुख इस बात का है कि यह चुनाव भी किसानों के मुद्दे को केंद्रित ना करते हुए बेवजह के मुद्दों पर लड़ा जा रहा है और देश के प्रधानमंत्री इस मामले में बढ़त के लिए हुए है. अभी भी वक्त है अपने प्रधानमंत्री से पिछले 5 साल का हिसाब मांग लिजिए. सरकार के सरकारी आंकड़े भी सरकार की आलोचना करते हैं. एक मशहूर शेर है-

तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है, मगर यह आंकड़े छूटे हैं यह दावा किताबी है.

लेखक- विक्रांत सिंह
संस्थापक एवं अध्यक्ष
फाइनेंस एंड इकोनॉमिक्स थिंक काउंसिल
छात्र – काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी

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