टैरिफ युद्ध: वैश्विक आर्थिकी के लिए संकट की आहट

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी ‘टैरिफ नीति’ को आगे बढ़ाते हुए अब पारस्परिक शुल्क (रेसिप्रोकल टैरिफ) की घोषणा की है। इसके बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक बार फिर व्यापार संरक्षणवाद, वैश्विक आपूर्ति शृंखला में विघटन और संभावित आर्थिक मंदी की आशंकाएं पैदा होने लगी हैं। यह आर्थिक प्रयोग वह अमेरिका कर रहा है जिसने अपना वैश्विक प्रभुत्व ही खुले बाजार की अवधारणा के माध्यम से स्थापित किया। उदहारण के लिए, सामान्य शुल्क एवं व्यापार समझौता, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, संयुक्त राष्ट्र व्यापार और विकास सम्मेलन तथा विश्व व्यापार संगठन जैसी संस्थाएं अमेरिका के प्रभाव में इसीलिए विकसित हुईं, ताकि विश्व में मुक्त व्यापार को बढ़ावा दिया जा सके, वैश्विक अर्थव्यवस्था का उदारीकरण हो और अमेरिका अपना आर्थिक नेतृत्व स्थापित कर सके। वर्ष 1991 में भारत को आर्थिक संकट के समय आइएमएफ (इंटरनेशनल मोनेटरी फंड) से जो सहायता मिली थी, वह इसी समझ के आधार पर थी कि भारत अपने बाजार को विश्व के लिए खोलेगा। लेकिन ट्रंप के नेतृत्व में आज अमेरिका मुक्त व्यापार के विपरीत दिशा में अग्रसर है। आखिर ऐसा क्या हुआ कि अमेरिका अपना पूरा आर्थिक सोच बदल रहा है? इसका उत्तर है- विश्व में अमेरिका से इतर उभरते नए मैन्युफैक्चरिंग सेंटर।

वैश्विक विनिर्माण केंद्र : यह सर्वविदित है कि आज चीन को ‘विश्व की फैक्ट्री’ कहा जाता है। वैश्विक विनिर्माण में चीन की हिस्सेदारी लगभग 30 प्रतिशत है। इसके अलावा, भारत भी फार्मा, मोबाइल मैन्युफैक्चरिंग और आइटी जैसे क्षेत्रो में तेजी से उभर रहा है। ट्रंप को लगता है कि वे आयात पर भारी शुल्क लगाकर कंपनियों को एक बार पुनः अमेरिका की ओर आकर्षित कर सकते हैं, पुनः वैश्विक विनिर्माण केंद्र बन सकते हैं, टैरिफ से प्राप्त राजस्व से अमेरिकी नागरिकों को करों में राहत और देश में रोजगार के अवसर बढ़ा सकते हैं। हालांकि, इन पक्षों का विश्लेषण करें तो तस्वीर विपरीत नजर आती है।

वस्तुत: अमेरिका में विनिर्माण लागत अपेक्षाकृत अधिक है, जबकि चीन और भारत जैसे एशियाई देशों में सस्ता श्रम, कुशल कार्यबल और प्रभावी आपूर्ति शृंखला की उपलब्धता है। ऐसे में कोई भी कंपनी अमेरिका क्यों जाना चाहेगी, जब उन्हें एशिया में कम लागत पर बेहतर संसाधन मिल रहे हैं? दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि अमेरिका की कांग्रेशनल रिसर्च सर्विस के अनुसार, पिछले 70 वर्षों में अमेरिका की कुल आय में टैरिफ का योगदान कभी भी दो प्रतिशत से अधिक नहीं रहा है। फिर राष्ट्रपति ट्रंप आखिर टैरिफ से किस आय और राहत की बात कर रहे हैं? इसलिए आज चिंता भारत को नहीं, बल्कि अमेरिका को करनी चाहिए। यदि यह टैरिफ युद्ध जारी रहा, तो अमेरिका में महंगाई तेजी से बढ़ेगी और यह एक लंबी आर्थिक सुस्ती का कारण बनेगी। ऐसा इसलिए, क्योंकि अमेरिका आज चीन, भारत और अन्य एशियाई देशों से आयात पर काफी हद तक निर्भर है। जब ऊंचे टैरिफ से स्थानीय उत्पादन की लागत बढ़ेगी, आम वस्तुएं महंगी होंगी तो लाभ की जगह महंगाई बढ़ेगी, और इसका सीधा असर अमेरिकी नागरिकों पर पड़ेगा। ऐसे में राष्ट्रपति ट्रंप कर में जो राहत देना चाहते हैं, वही महंगाई के रूप में नागरिकों से वसूली जाएगी।

भारत-अमेरिका व्यापारिक संबंध : अब इस संपूर्ण परिदृश्य में ज्वलंत प्रश्न यह है कि रेसिप्रोकल टैरिफ (26 प्रतिशत) का भारत पर क्या प्रभाव पड़ेगा? इस प्रश्न का उत्तर इस बात पर निर्भर करता है कि भारत और अमेरिका के बीच विदेशी व्यापार का आकार क्या है और परस्पर निर्भरता की स्थिति कैसी है। यदि व्यापार की बात करें, तो अमेरिका उन देशों में शामिल है जिनके साथ भारत का व्यापार अधिशेष (सरप्लस) में है। वर्ष 2024 में भारत और अमेरिका के बीच कुल व्यापार अनुमानित रूप से 129.2 अरब डालर का रहा। अमेरिका ने भारत को 41.8 अरब डालर मूल्य की वस्तुएं निर्यात कीं, जो वर्ष 2023 की तुलना में 3.4 प्रतिशत (1.4 अरब डालर) अधिक है। वहीं, अमेरिका ने भारत से 87.4 अरब डालर की वस्तुएं आयात कीं, जो वर्ष 2023 की तुलना में 4.5 प्रतिशत (3.7 अरब डालर) की वृद्धि दर्शाता है।

परिणामस्वरूप, अमेरिका को भारत के साथ 45.7 अरब डालर का व्यापार घाटा हुआ, जो वर्ष 2023 की तुलना में 5.4 प्रतिशत (2.4 अरब डालर) अधिक है। इसलिए यह स्पष्ट है कि रेसिप्रोकल टैरिफ का असर भारत पर अवश्य पड़ेगा। क्योंकि अमेरिका में जो आर्थिक सुस्ती इस टैरिफ वार से आएगी, उसका असर भारत पर भी दिखेगा। लेकिन यह प्रभाव इस तथ्य से तय होगा कि अन्य देशों पर अमेरिका ने कितना टैरिफ लगाया है? यदि अन्य देशों के मुकाबले भारत पर कम या तुलनात्मक रूप से संतुलित शुल्क है, तो यह एक तुलनात्मक लाभ हो सकता है। इसीलिए भारत को हानि होगी या लाभ- यह पूरी तरह इस नीति की व्यापकता और अनुपालन पर निर्भर है।

भारत को कैसे हो सकता है लाभ : ट्रंप प्रशासन ने वियतनाम पर 46 प्रतिशत, बांग्लादेश पर 37 प्रतिशत और चीन पर 54 प्रतिशत (34 प्रतिशत रेसिप्रोकल टैरिफ और 20 प्रतिशत पहले से लागू टैरिफ) लगाया है। हालांकि मंगलवार को अमेरिका ने चीन के प्रति और सख्ती बरतते हुए इसे 104 प्रतिशत तक बढ़ाने की बात कही है। वैसे इसका असर क्या होगा और भारत को कैसे लाभ होगा, इसके लिए ‘टेक्सटाइल सेक्टर’ का उदहारण लेते हैं। अमेरिका मुख्यतः टेक्सटाइल उत्पादों का आयात चीन, वियतनाम, भारत और बांग्लादेश से करता है। अब भारतीय वस्त्रों पर 26 प्रतिशत टैरिफ लागू किया जाएगा, जो बांग्लादेश, चीन और वियतनाम की तुलना में काफी कम है। इस परिदृश्य में भारत के पास एक सुनहरा अवसर है कि वह टेक्सटाइल और परिधान के निर्यात में प्रतिस्पर्धात्मक बढ़त प्राप्त कर सकता है। वैसे भारत राष्ट्रीय तकनीकी वस्त्र मिशन के तहत 10 अरब डालर मूल्य के वस्त्रों के निर्यात का लक्ष्य लेकर चल रहा है, जो इस व्यापार युद्ध में भारत के लिए आसानी से हासिल हो सकता है।

यह तो केवल एक सेगमेंट की बात है। भारत टैरिफ के बावजूद अभी भी एशिया में अमेरिका के लिए सबसे किफायती और विश्वसनीय साझेदार बना हुआ है, और इस टैरिफ युद्ध में वास्तविक लाभ इसे प्राप्त होने की संभावना है। इसके साथ ही यह ध्यान देना आवश्यक है कि भारत और अमेरिका के बीच व्यापार समझौते (ट्रेड डील) को लेकर बातचीत काफी उन्नत चरण में पहुंच चुकी है। जैसे ही यह समझौता अंतिम रूप लेता है, भारत पर टैरिफ के प्रतिकूल प्रभाव काफी हद तक कम या समाप्त हो सकते हैं। हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप और भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मुलाकात के दौरान दोनों देशों ने ‘मिशन 500’ के तहत द्विपक्षीय व्यापार को वर्ष 2030 तक 500 अरब डालर तक ले जाने पर सहमति जताई थी। इसी क्रम में प्रस्तावित ट्रेड डील भारत के लिए आपदा में अवसर सिद्ध हो सकती है और आर्थिक मोर्चे पर एक बड़ी संजीवनी बनकर उभर सकती है। हालांकि, इन सभी परिस्थितियों के बीच भारत को सतर्कता बरतनी होगी कि वह टैरिफ से प्रभावित चीन के लिए डंपिंग स्थल न बने।

मुक्त व्यापार ही वैश्विक आर्थिकी के लिए श्रेष्ठ मार्ग

टैरिफ युद्ध से वैश्विक अर्थव्यवस्था में सुस्ती आने की आशंका व्यक्त की गई है। आइएमएफ के अनुसार, वर्ष 2025 में वैश्विक आर्थिक वृद्धि दर 3.3 प्रतिशत रहने का अनुमान है। हालांकि यह पूर्वानुमान टैरिफ प्रभाव से पहले का है। लिहाजा इसमें और भी कमी आने का अंदेशा है। वैसे इस टैरिफ युद्ध में भले ही भारत को संभावित लाभ की चर्चा हो रही हो, लेकिन सच्चाई यह है कि वर्तमान वैश्विक अर्थव्यवस्था को मुक्त व्यापार की पहले से कहीं अधिक आवश्यकता है। आज दुनिया मंदी और सुस्ती का सामना कर रही है, और यह संकट इतना गहरा है कि भारत एवं कुछ चुनिंदा देशों को छोड़कर लगभग सभी प्रमुख अर्थव्यवस्थाएं इससे दुष्प्रभावित हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा के अनुसार, वर्ष 2024 में वैश्विक आर्थिक विकास दर केवल 3.2 प्रतिशत रहने की संभावना है, जबकि 2025 में यह 3.3 प्रतिशत तक पहुंचने की उम्मीद है। वहीं, विश्व बैंक ने चेतावनी दी है कि यह दशक बीते 30 वर्षों में सबसे धीमी आर्थिक प्रगति वाला हो सकता है।

आज व्यापार संरक्षणवाद, टैरिफ युद्ध या ट्रेड वार के जरिए कोई देश भले ही स्वयं को आर्थिक रूप से “महान” सिद्ध करने का दावा करे, लेकिन इतिहास बताता है कि यह रणनीति टिकाऊ नहीं होती है। अमेरिका के इतिहास में वर्ष 1930 का स्मूट-हाले टैरिफ कानून इसका प्रमुख उदाहरण है। इस कानून के तहत लगभग 20 हजार से अधिक विदेशी वस्तुओं पर भारी शुल्क लगाया गया, जिसका उद्देश्य रोजगार, उत्पादन और आय में वृद्धि करना था- कुछ हद तक वही तर्क जो आज ट्रंप की टैरिफ नीति में देखने को मिल रहा है। लेकिन यह नीति एक वैश्विक व्यापार युद्ध में तब्दील हो गई। ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, कनाडा और अन्य देशों ने अमेरिका के खिलाफ जवाबी टैरिफ लगा दिए। इसका नतीजा यह हुआ कि अमेरिकी निर्यात में भारी गिरावट आई, फैक्ट्रियां बंद होने लगीं और वैश्विक व्यापार व्यवस्था चरमरा गई। इस व्यापारिक असंतुलन का असर केवल अमेरिका तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यूरोपीय अर्थव्यवस्थाएं भी कमजोर पड़ गईं और अंतरराष्ट्रीय व्यापार नेटवर्क लगभग ठप हो गया। इतिहास गवाह है कि जब भी कोई देश संरक्षणवाद की राह पर चलता है, तो स्मूट-हाले टैरिफ जैसा विनाशकारी प्रभाव दोहराया जाता है। वर्ष 1930 के आसपास जो महामंदी का दौर कायम रहा, उसका दुष्प्रभाव अधिक दिनों तक रहने के लिए इसी नीति को जिम्मेदार ठहराया जाता है। इसलिए आज के वैश्विक परिदृश्य में आवश्यकता इस बात की है कि वैश्विक व्यापार में स्थिरता और लचीलापन के लिए मुक्त व्यापार को बढ़ावा दिया जाए, न कि टैरिफ युद्ध को।

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