बढ़ती आर्थिक असमानता के बीच ‘न्याय योजना’ की राजकोषीय चुनौती

अर्थशास्त्र का एक बुनियादी नियम होता है कि दुनिया की हर अर्थव्यवस्था ‘संसाधनों के अभाव’ को देखती है. अर्थशास्त्र कहता है कि आप उपलब्ध संसाधनों के अनुसार ही खर्च के लिए आगे बढ़े. लेकिन हमारी भारतीय राजनीति में भी एक छोटा सा बुनियादी नियम चलता है. बिना किसी राजकोषीय चुनौती को ध्यान में लिए बगैर हमें अर्थशास्त्र के पहले बुनियादी नियम को चुनौती देना है. यही कारण है कि भारत की राजकोषीय नीति हमेशा तय किए गए निर्धारित लक्ष्य से दूर रहती है लेकिन सही मायने में यह आलोचना का विषय नहीं है. दुनिया की हर विकासशील व्यवस्था अपने आय से अधिक खर्च करती है. हालांकि बढ़ा हुआ राजकोषीय घाटा आलोचना का विषय तब बन जाता है जब हमारी राजकोषीय नीति निर्धारित लक्ष्य से काफी आगे निकल जाती है. वर्ष 2008 की वैश्विक मंदी के बाद से भारतीय अर्थव्यवस्था ने फिसकल डिफिसिट की समस्या को देखा था. वर्ष 2008 की वैश्विक मंदी के बाद यह बेहद जरूरी हो चुका था कि अर्थव्यवस्था में मुद्रा प्रवाह को सरकारी खर्चे के जरिए बढ़ाया जाए, इसके परिणामस्वरूप बाद में चलकर फिसकल डिफिसिट 5% से ऊपर चला गया और तत्कालीन मनमोहन जी की सरकार की आलोचना भी हुई थी. यह भी याद रखना चाहिए कि मनमोहन सिंह की ही सरकार थी जिसने पहली बार फिसकल रिस्पांसिबिलिटी मैनेजमेंट एक्ट 2003 के जरिए निर्धारित किए गए 0%-3% के बीच को हासिल किया था. बढ़ा हुआ फिसकल डिफिसिट हकीकत में अर्थव्यवस्था के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती होती है. उदाहरण के रूप में ग्रीस को ले सकते हैं.

दूसरी चर्चा अब गरीबी की करते हैं. भारतीय अर्थव्यवस्था में गरीबी एक सामाजिक और राजनीतिक चर्चा का केंद्र बिंदु रहा है. देश की पार्टियों ने गरीबी को एक राजनैतिक नारा बना कर चुनाव जीतने का काम कर चुकी है. यह कार्य हर दल ने किया है. आर्थिक सर्वेक्षण 2016-17 के अनुसार आजादी के बाद से भारत में गरीबी को कम करने में एक अप्रत्याशित सफलता हासिल की है. आजादी के समय 70% आबादी गरीबी के दायरे में आती थी. आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार तेंदुलकर कमिटी के अनुसार अब 22% आबादी गरीबी के दायरे में है. गरीबी उन्मूलन के क्षेत्र में सन 1991 की आर्थिक नीति के बाद से बड़े स्तर पर परिवर्तन देखा गया है. विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार सन् 1991 की नई आर्थिक नीति के बाद गरीबी में 1.3 फीसदी की दर से कम हुई है. यह 1991 से पहले 0.44 फीसदी की दर से घट रही थी. नई आर्थिक नीति के बाद से तकरीबन 13.80 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर लाया जा चुका है. यूनाइटेड नेशन डेवलपमेंट प्रोग्राम के मल्टीडाइमेंशनल पॉवर्टी इंडेक्स 2018 रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2005-06 से लेकर वर्ष 2015-16 के बीच में भारत ने गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले 27% आबादी को गरीबी के दायरे से बाहर लाया है. इस 27% आबादी में सबसे बड़ा हिस्सा बच्चों, अल्पसंख्यक समुदाय और पिछड़ी जातियों का रहा है.

लेकिन इन आर्थिक नीतियों की सफलता के बावजूद भी आर्थिक असमानता भारतीय अर्थव्यवस्था में बहुत तेजी से बढ़ी है. आईएमएफ की रिपोर्ट के अनुसार, प्रति व्यक्ति आय दर के मामले में 200 देशों की सूची में भारत 126वें पायदान पर है. ब्रिटेन स्थित चैरिटी ऑक्सफैम इंटरनेशनल ने आर्थिक असमानता को कम करने के प्रतिबद्धता सूचकांक में 157 देशों वाली सूची में भारत को 147वां स्थान दिया है. इस इंडेक्स में भारत को असमानता कम करने की प्रतिबद्धता के लिए “बहुत ही चिंताजनक स्थिति” के रूप में चिन्हित किया गया है. ऑक्सफैम ने पाया कि भले ही 2018 में भारत के 1 प्रतिशत लोगों की संपत्ति में 39 प्रतिशत की वृद्धि हुई हो लेकिन देश के सबसे गरीब लोगों की संपत्ति में महज 3 प्रतिशत का इजाफा हुआ है. सही मायने में आर्थिक असमानता के परिणाम स्वरुप ही आर्थिक ग़रीबी के दायरे का विस्तार होता है.

फिसकल डिफिसिट, गरीबी और आर्थिक असमानता की चर्चा इसलिए जरूरी थी क्योंकि हाल ही में अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री राहुल गांधी जी ने ‘न्याय योजना’ नाम की एक योजना का जिक्र किया है. इस योजना के जिक्र के साथ ही फिसकल डिफिसिट और गरीबी पर खूब चर्चा हो रही है. कांग्रेस की ‘न्याय स्कीम’ के तहत हर गरीब परिवार की मासिक कमाई 12 हजार रुपये तक पहुंचाने का लक्ष्‍य रखा गया है. उदाहरण के लिए अगर आपकी आय 4000 रुपये मासिक है तो फिर कांग्रेस सरकार की ओर से 8000 रुपये की मदद दी जाएगी. वहीं अगर आपकी मासिक आय 5 हजार रुपये है तो कांग्रेस की सरकार आपको 7 हजार रुपये देकर 12 हजार रुपये की न्‍यूनतम आय की श्रेणी में लाने का काम करेगी. हालांकि आपकी न्‍यूनतम आय 12 हजार रुपये को पार कर जाती है तो आप इस सुविधा के हकदार नहीं रहेंगे.

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने वादा किया है कि अगर कांग्रेस सरकार में आई तो वे न्यूनतम आय सहायता योजना (न्याय) लागू करेंगे. इसके तहत देश के 5 करोड़ परिवार या 25 करोड़ लोगों को सालाना 72 हजार रुपए दिए जाने का वादा किया गया है. उनका अपना दावा है कि ये योजना देश की 20 फीसदी गरीब जनता के लिए है. इस योजना के अंतर्गत पैसे महिलाओं के खाते में डाले जाएंगे. कांग्रेस के द्वारा जारी आंकड़ों को ही आधार मान लें तो एक वर्ष में 72000 रुपये पांच करोड़ परिवारों को देने में 3.6 लाख करोड़ रुपये का सालाना खर्च आएगा और यह योजना देश की कुल जीडीपी का दो फीसद और मौजूदा वार्षिक बजट का 13 फीसद हिस्सा रखती है. यही बातें नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने भी की है. इस योजना की चर्चा के दौरान एक तथ्य बहुत स्पष्ट रखना चाहिए कि यह योजना यूनिवर्सल बेसिक इनकम यानी कि सार्वभौमिक आय जैसी योजना नहीं है. न्यूनतम आय गारंटी और सार्वभौमिक आय में एक बड़ा अंतर होता है. भारत में यूनिवर्सल बेसिक इनकम या गारंटीकृत आय पर व्यापक स्तर से बहस की शुरुआत वर्ष 2016-17 के आर्थिक सर्वेक्षण के बाद हुई थी. इस वर्ष के आर्थिक सर्वेक्षण में यूनिवर्सल बेसिक इनकम पर चालीस से अधिक पेजों का एक खाका तैयार किया गया था. इस रिपोर्ट के अनुसार यूनिवर्सल बेसिक इनकम भारत में व्याप्त गरीबी का एक संभव समाधान हो सकता है. यह चर्चा इसलिए भी सार्थक बताई गई थी क्योंकि संचालित बेरोजगारी और जन कल्याणकारी संबंधित योजनाएं अपेक्षित परिणाम नहीं दे पा रही थी. उस दौरान मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन ने लिखा था कि “यूनिवर्सल बेसिक इनकम जैसी योजना हमें सामाजिक न्याय के साथ-साथ एक उत्पादक अर्थव्यवस्था बनाने में मददगार साबित हो सकती है “. उस दौरान यूनिवर्सल बेसिक इनकम के रूप में आर्थिक सर्वेक्षण ने ₹7620 प्रति वर्ष देश के 75% आबादी को देने की वकालत की थी. लेकिन राहुल गांधी की योजना देश की 20% गरीब आबादी को देने के लिए बताई जा रही है.

देश के सभी बड़े आर्थिक जानकार इस बात पर लगभग एकमत हैं कि न्यूनतम आय गारंटी या पूर्व में भाजपा सरकार द्वारा लागू की गई पीएम किसान सम्मान योजना जैसी योजनायें राजकोषीय घाटे को बढ़ाने का ही कार्य करेंगी. हाल ही में पेश हुए अंतरिम बजट में मोदी सरकार ने तमाम लोकलुभावन चुनावी घोषणाओं के बीच राजकोषीय घाटा कम करने का लक्ष्य 3.3 से बढ़ाकर 3.4 फीसद कर दिया था.

इस योजना की चर्चा में आ जाने के बाद से जो सबसे बड़ा मूल प्रश्न है वह यह है कि इसी योजना के भारी भरकम खर्च को कहां वहन किया जाएगा? कांग्रेस के अनुसार उसने बड़े अर्थशास्त्रियों से सलाह लेने के बाद इस योजना का खाका तैयार किया है. हाल ही में रघुराम राजन ने भी स्पष्ट किया कि कांग्रेस ने इस योजना को लेकर उनसे परामर्श किया था. रघुराम राजन के अनुसार यह योजना लागू की जा सकती है और इसके लिए राजकोषीय गुंजाइश बनाने की जरूरत है. इस योजना से किसानों की आत्महत्या मे बड़ी कमी देखी जा सकती है. लगभग हर अर्थशास्त्री योजना के परिणाम पर संदेह नहीं कर रहा है परंतु योजना के क्रियान्वयन और इसके बजट पर प्रश्नचिन्ह लगा रहा है.

अभी तक कांग्रेस पार्टी भी इतनी बड़ी योजना के बजट पर कोई स्पष्ट वक्तव्य जारी नहीं कर पाई है. कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता और पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने इसकी संतुष्टि जरूर की है कि इस योजना को लागू करते समय किसी भी सब्सिडी में कटौती नहीं की जाएगी. तो फिर प्रश्न यही उठता है की बजट का प्रावधान कहां से होगा? या तो हमें किसी नए टैक्स को लगाना होगा या फिर सरकारी खजाने से बिना फिसकल डिफिसिट को ध्यान में रखें खर्च करना होगा. अगर बिना फिसकल डिफिसिट को ध्यान रखें यह योजना लागू की जाती है तो भविष्य में महंगाई का एक बड़ा कारण बनेगी. साथ ही साथ यह योजना आने वाले समय में गरीबी तय करने के एक नए मापक तैयार कर देगी. हो सकता है कि आज प्रतिदिन ₹40 कमाने वाले गरीबी मापने के मानक को यह योजना लागू करने के बाद ₹400 भी कर दे.

तो क्या सच में न्याय योजना गरीबी को खत्म कर देगी? ऐसा इसलिए क्योंकि गरीबी को खत्म करने का कोई एक तरीका नहीं हो सकता है. जब भी आप एक तबके को गरीबी रेखा से ऊपर लाते हैं तो ठीक उसी समय एक तबका गरीबी रेखा के नीचे का तैयार हो चुका होता है. राहुल गांधी की योजना कितनी सफल होगी या तो इसके क्रियान्वयन के बाद जाना जाएगा परंतु एक तथ्य तो बहुत ही स्पष्ट है चुनाव से पहले ₹12000 की राशि और इसका बजट आने वाली राजकोषीय नीति के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती के रूप में सामने आएगा.

हालांकि बजट के प्रावधानों की बहस के बीच पेरिस स्कूल आफ इकोनॉमिक्स के “द वर्ल्ड इनइक्वैलिटी लैब” के अर्थशास्त्रियों ने न्याय योजना के फंड को लेकर चार सुझाव पेश किए है,जिनके जरिए इस योजना के वित्तीय जरूरतों को पूरा किया जा सकता है.

योजना के लिए 4 विकल्प

  1. 2.5 करोड़ रुपये से अधिक की संपत्ति वाले परिवारों पर कुल 2% टैक्स लगाने के बाद 2.3 लाख करोड़ रुपये वसूला जा सकता है, जो देश की जीडीपी का 1.1 फीसदी होगा. यह केवल शीर्ष 0.1% परिवारों को प्रभावित करेगा और 99.9% घर इससे अछूते रहेंगे.
  2. दो करोड़ रुपये से अधिक की जमीन और घर पर 2% टैक्स लगाने के बाद 2.6 लाख करोड़ रुपये का राजस्व मिलेगा जो कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 1.2 फीसदी होगा. बता दें कि ये केवल शीर्ष 1 फीसदी परिवारों को ही प्रभावित करेगा.
  3. केवल 20 प्रतिशत का स्लैब अगर शीर्ष 0.1% आबादी के लिए एक बना दिया जाए, तो इससे 1.36 लाख करोड़ रुपये या जीडीपी का 0.6% उत्पन्न किया जा सकता है. इसका मतलब है 50 लाख से अधिक आय वाले व्यक्तियों के लिए 30% के मौजूदा टैक्स स्तर से बढ़ाकर 50% का मार्जिनल इनकम टैक्स ब्रैकेट जोड़ा जाए.
  4. 70% टैक्स रेट का एक नया खांचा बनाया जाए, जो 1970 के दशक में अमेरिका और भारत में निर्धारित शीर्ष टैक्स की दर के लगभग बराबर हो, जो 20वीं शताब्दी में अमेरिका या ब्रिटेन की ऐतिहासिक ऊंचाइयों से तो काफी कम है, लेकिन जीडीपी का 1.2% उत्पन्न कर सकता है.

चूंकि इस योजना के वित्तीय जरूरतों को पूरा करने के चक्कर में कोई भी सरकार अन्य सामाजिक योजनाओं से कटौती करना नहीं चाहेगी. इसलिए देश की 1% अमीर आबादी से अतिरिक्त कर के जरिए इस योजना के एक बड़े हिस्से के लिए वित्तीय प्रबंधन का कार्य किया जा सकता है.

राहुल गांधी की न्याय योजना प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना से कई मायनों में अच्छी है. प्रधानमंत्री कृषि सम्मान योजना के अंतर्गत कृषि मजदूरों और कृषि भूमि को किराए पर लेकर कृषि करने वाले किसानों के लिए कोई स्पष्ट मापदंड नहीं है. लेकिन यह योजना देश के 20% गरीब आबादी को दायरे में लेकर कार्य करेगी. इसलिए इस योजना के अंतर्गत देश की महिला किसान, देश के छोटे और सीमांत किसान, बेरोजगारी झेल रहा कमजोर तबका और समाजिक रूप से उपेक्षित तबके लाभान्वित होंगे.

लेखक- विक्रान्त सिंह
संस्थापक एवं अध्यक्ष
फाइनेंस एंड इकोनॉमिक्स थिंक काउंसिल
काशी हिंदू विश्वविद्यालय।

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