भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बैंक रीढ़ की हड्डी की तरह हैं. ऐसे में बैंकों की बढ़ रही गैर-निष्पादित संपत्ति (एनपीए) बड़ा संकट पैदा कर सकती है. क्या है एनपीए? क्या वजह है इसके बढ़ने की? आइए इन सवालों के जवाब जानते हैं. बैंकों के लोन को तब एनपीए में शामिल कर लिया जाता है, जब तय तिथि से 90 दिनों के अंदर उस पर बकाया ब्याज तथा मूलधन की किस्त नहीं चुकाई जाती.
बढ़ते एनपीए का बैंकों पर तीन मुख्य प्रभाव पड़ता है. उनकी लोन देने की क्षमता घट जाती है. मुनाफे में कमी आती है. उनके नकदी का प्रवाह घट जाता है. साल 2008 में भारतीय कंपनियों को भी मंदी का शिकार होना पड़ा था. मंदी के दौर से बाहर आने के बाद बैंकों ने बड़ी कंपनियों को कर्ज देने में उनकी वित्तीय स्थिति और क्रेडिट रेटिंग की अनदेखी की. इससे भारतीय अर्थव्यवस्था एनपीए के जाल में फंसने लगी.
सरकारी बैंकों ने सबसे ज्यादा कर्ज पांच औद्योगिक सेक्टर को दिए हैं. इनमें टेक्सटाइल, एविएशन, माइनिंग, इंफ्रास्ट्रक्चर तथा सीमेंट शामिल हैं. सबसे अधिक एनपीए इन्हीं क्षेत्रों में बढ़ा है. हालांकि यह दावा किया जाता है कि कृषि जैसे प्राथमिक क्षेत्र को दिए गए ज्यादातर कर्ज एनपीए में बदल जाते हैं. लेकिन, यह सच्चाई नहीं है. एनपीए में उद्योग जगत और बड़ी कंपनियों का योगदान सबसे ज्यादा है. एनपीए का एक पहलू काफी महत्वपूर्ण है. यह बैंकों के पर्याप्त आकस्मिकता नियोजन (एडीक्वेट कंटिंजेंसी प्लानिंग) की व्यवस्था से जुड़ा है. कुछ विशेषज्ञों के अनुसार, बैंकों अपनी साख कम होने के डर से भी संपत्ति की गुणवत्ता का सही आंकलन नहीं करते हैं.
क्या है बैंकों में एनपीए की स्थिति?
देश के 38 सूचीबद्ध कमर्शियल बैंकों का एनपीए ₹8.41 लाख करोड़ से ज्यादा हो चुका है. इनमें से 90% सरकारी बैंकों में है, जो पूरी बैंकिंग व्यवस्था के 70% संपत्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं. केंद्रीय बैंक के अधिकारियों और आर्थिक विशेषज्ञों की मानें तो समय रहते कोई उपाय नहीं किया गया तो यह आंकड़ा ₹20 लाख करोड़ तक पहुंच सकता है.
वर्ष 2015 की तीसरी तिमाही में एनपीए ₹3.51 लाख करोड़ था. यह जून 2017 में दोगुने से भी ज्यादा ₹8.29 लाख करोड़ हो गया. सरकारी बैंकों में सबसे ज्यादा एनपीए एसबीआई का है. यह 2 लाख करोड़ रुपये से अधिक हो चुका है. पीएनबी ₹ 55,000 करोड़ के साथ दूसरे नंबर पर, बैंक आफ इंडिया ₹46,000 करोड़ के साथ तीसरे स्थान पर, आईडीबीआई बैंक ₹43000 करोड़ के साथ चौथे नंबर पर है. गैर-सरकारी बैंकों में आईसीआईसीआई बैंक ₹43,000 करोड़ एनपीए के साथ पहले नंबर पर, एक्सिस बैंक ₹20,000 करोड़ के साथ दूसरे तथा एचडीएफसी बैंक ₹7000 करोड़ के साथ तीसरे नंबर पर है.
बैंकों का रिकैपिटलाइजेशन किस तरह मददगार है?
भारत सरकार ने माली हालत सुधारने के लिए बैंकों को ₹2.11 लाख करोड़ की धनराशि अतिरिक्त पूंजी के रूप में देने का फैसला किया है. इनमें से ₹1.35 लाख करोड़ रिकैपिटलाइजेशन बांड्स के रूप में देने की योजना है. बाकी ₹76000 करोड़ में से ₹18,000 करोड़ इंद्रधनुष योजना के तहत बजट से स्वीकृत किये जाएंगे और शेष ₹58,000 करोड़ बैंक खुद बाजार से जुटाएंगे.
पुनर्पूंजीकरण बैंकों के पूंजी आधार को मजबूत करेगा. यह उनके लिए क्रेडिट निर्माण करने में मददगार साबित होगा. इससे बैंकों का मुनाफा बढ़ेगा तथा रकम का प्रवाह घटने के खतरे को कम कर उन्हें दिवालिया होने से बचाया जा सकेगा. छोटी अवधि के लिए तो यह उपाय ठीक है, लेकिन इसे एकमात्र विकल्प मान लेना देश के करदाताओं के साथ नाइंसाफी होगी.
क्या उपाय संभव है? समय-समय पर पुनर्पूंजीकरण के साथ सरकारी बैंको के कामकाज को और पारदर्शी बनाने के प्रयास किये जाने चाहिए. सरकारी बैंको के आंतरिक अंकेक्षण भी कैग के निर्देशानुसार और संरक्षण में होने चाहिए. सरकार और आरबीआई की सहभागिता से समता अंश योगदान के जरिए एक संपत्ति पुनर्निमार्ण कंपनी (एसेट्स रिकंस्ट्रक्शन कंपनी) का गठन हो, जो बैंकिंग क्षेत्र से एनपीए को खत्म कर सके. किसी कंपनी को ऋण स्वीकृत करने से पहले उसकी वित्तीय स्थिति और परियोजना की व्यावहारिकता की निष्पक्ष जांच हो तथा बगैर पर्याप्त सुरक्षा और बंधक के कोई ऋण स्वीकृत न हो. बैंको को पीपीपी मॉडल पर विकसित करने के प्रयास किये जाने चाहिए. सरकार को ये पुनर्विचार करना चाहिए कि क्या सरकारी बैंको में 70% स्वामित्व जरुरी है, जब 51% के स्वामित्व के साथ पीपीपी मॉडल पर बैंको को विकसित कर उनकी क्षमताओ को बढाया जा सकता है.