नए कृषि सुधारों से क्यों नाराज़ है किसान?

लेखक: अखिल पांडे
सदस्य: फाइनेंस एंड इकोनॉमिक्स थिंक काउंसिल

मोदी सरकार ने राज्यसभा में 3 विधेयक ध्वनि मत से पारित करा लिए जो कि इस प्रकार हैं कृषक उत्पाद व्यापार एवं वाणिज्य(संवर्धन एवं सरलीकरण) विधेयक, कृषक सशक्तिकरण एवं संरक्षण अनुबंधित विधेयक और आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक ,1955।

सरल भाषा में कहें तो मोदी सरकार ने कृषि उत्पाद बाजार समिति की असफलता के बाद कृषि उत्पादकों को नई पद्धति के अनुसार बेचने का विकल्प उपलब्ध कराने की बात कही है जिसमें कृषि मंडियों का कार्य घट जाएगा, कांट्रैक्ट फार्मिंग तथा कुछ वस्तुओं को आवश्यक वस्तु विधेयक से बाहर लाने की बात कही है। सारे पहलुओं पर चर्चा करने से पहले भारतीय कृषि एवं ग्रामीण क्षेत्र से संबंधित तीन आंकड़ों पर हमें नजर डाल लेनी चाहिए।

१. भारत में नवीनतम कृषि जनगणना के अनुसार 86.21% किसान लघु एवं सीमांत किसान है।
२.एनएसओ के 2017-18 के आंकड़ों के अनुसार अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में 23% से अधिक आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रही है।
३. ग्रामीण क्षेत्र में साक्षरता दर यानी कि ऐसे लोग जो कि आमतौर पर पढ़ना लिखना जानते हैं की संख्या 68.91% है।

कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की बात करने से पहले हमें यह समझना होगा कि भारत सभी आवश्यक कृषि उत्पादों के संबंध में अभी आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है। अभी भी भारत में कुल कृषि उत्पाद का ज्यादातर हिस्सा किसान द्वारा उपभोग पर जाता है। भारत में कुपोषण की स्थिति किसी से छिपी नहीं है, भारतीय जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा अभी भी आधे पेट खाकर सोता है। ऐसे किसान जो कि अपनी उपज का एक बड़ा हिस्सा व्यापारियों या सरकार को बेचते हैं उनकी संख्या कम है जैसा कि आंकड़ों के अनुसार भारत में लघु एवं सीमांत किसान की संख्या अधिक है ऐसे किसान कृषि माध्यम का इस्तेमाल अपने जीवन यापन के लिए करते हैं ना कि व्यवसाय के लिए। कांट्रैक्ट फार्मिंग की बात करने से पहले सरकार को यह पता लगाना चाहिए था कि भारत में कितने किसान अपने विधिक अधिकारों के बारे में जागरूक हैं तथा किसानों की साक्षरता दर कितनी है। सरकार को यह भी समझना चाहिए कि भारत यूरोप, ऑस्ट्रेलिया या अमेरिका की तरह नहीं है जहां पर आमतौर पर लोगों के पास 60 से 70 हेक्टेयर के ऊपर कृषि भूमि होती है। भारत में कृषि व्यवसाय नहीं बल्कि मजबूरी का नाम होता है यह बात सिद्ध करने के लिए भारत में पलायन की स्थिति अपने आप में काफी है। कई बार कांट्रैक्ट फर्म किसानों को कांट्रैक्ट के नाम पर बेवकूफ बनाती हैं जब फसल तैयार हो जाती है तो उनसे उत्पाद रखने को कहती हैं और जब कई दिन तक उत्पाद रखने के बाद उस उत्पाद की गुणवत्ता घट जाती है तो खराब गुणवत्ता के नाम पर उसे खरीदने से इंकार कर देती हैं।कॉन्ट्रैक्ट फॉर्म किसानों को बेवकूफ बनाने के लिए और भी कई पैंतरे अपनाती हैं जिसके लिए कई बार किसान संगठनों को किसानों की मदद के लिए आगे आना पड़ता है। कांट्रैक्ट फार्मिंग के संबंध में बिल की धारा 13 जो कि विवाद निपटारे से संबंधित है , संशय पैदा करती है, इतने लंबे विवाद निपटारे को सुलझाने में किसान की सारी कमाई कोर्ट के चक्कर काटने में ही जाएगी।
भारत में कॉन्ट्रैक्ट फर्म की छवि अच्छी नहीं है , पेप्सीको द्वारा गुजरात के किसानों पर आलु केस के बारे में सबको विदित है।

दूसरा बिल विपणन से संबंधित है जिसमें मंडी की बंदिशों को खत्म करके सरकार चाहती है कि कृषक मंडी के इतर पूरे देश में अपनी उपज बेच सकें और उनकी आय में वृद्धि हो। हालांकि यह भी सत्य है किस सरकार भले ही न्यूनतम समर्थन मूल्य का विकल्प तैयार करती हो लेकिन भारत के सभी किसान अपने उत्पाद को भारतीय खाद्य निगम को नहीं बेज पाते हैं जिससे कि ज्यादातर फायदा बिचौलियों को होता है। सरकार ई-मंडी की बात कर रही है परंतु सरकार को यह समझना चाहिए कि यहां किसान एक जिले से दूसरे जिले तक उत्पाद ले जाकर बेचने में कठिनाइयां महसूस करते हैं तो पूरे देश की तो बात ही छोड़ दे। हाल ही में हमने कृषि उत्पाद बाजार समिति की विफलता देखी है हालांकि अगर सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी वैधता देते हुए इससे कम दाम पर फसलों की खरीदारी से रोक लगाती है , समय पर किसानों का भुगतान सुनिश्चित करती है तथा बिचौलियों को हटाने में सफल रहती है तो जरूर इस योजना का लाभ किसानों को मिल सकता है।

वहीं अगर आवश्यक वस्तु संशोधन विधेयक की बात करें तो सरकार ने आलू, प्याज समेत कई उत्पादों को इस सूची से बाहर रखा है अर्थात अब जमाखोरी तथा कालाबाजारी खुलेआम बिना किसी सरकारी डर के की जा सकती है। यहां सरकार का तर्क है की यदि वस्तु संशोधन विधेयक द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को हम हटा लेते हैं तो कृषक ज्यादा समय तक अपने उत्पाद का संग्रहण करके वाजिब दाम मिलने पर बेचकर मुनाफा कमा सकता है। परंतु सरकार को समझना चाहिए अभी हमारे देश में शीत घर, गोदाम, आपूर्ति श्रृंखला की स्थिति बहुत ही खराब चल रही है। महाराष्ट्र के प्याज किसानों तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के आलू किसानों के उत्पाद की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है, फसल का उत्पादन के कुछ दिन के अंदर ही वह अपनी फसल को बेचना चाहते हैं और बड़ी-बड़ी व्यापारी और जमाखोर जिनके पास सुसज्जित संग्रहण क्षमता है वह बिल्कुल नगण्य दामों पर खरीद कर इसे बहुत ही ऊंचे दामों पर बेचते हैं तथा फायदा कमाते हैं।आने वाले समय में यह चीजें कानूनी रूप से वैध रहेंगे तथा कोई भी बड़ा व्यापारी ऐसा करने में सक्षम रहेगा।छोटी एवं सीमांत किसानों को इसका लाभ बिल्कुल नहीं मिल पाएगा क्योंकि फसल उत्पाद के बाद बहुत ही कम समय में उन्हें पैसों की जरूरत होती है और वह ज्यादा समय तक उत्पाद का संग्रहण नहीं कर सकते।

यदि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य से संबंधित समस्याओं को सुलझाएं छोटे किसानों को सब्सिडी देकर तथा उनकी आय का कोई अन्य जरिया बनाकर ज्यादा से ज्यादा नए शीततघर खोलकर किसानों को अपने उत्पाद शीतघरों में संग्रहित करने में मदद करती है अंतर राज्य कृषि उत्पाद विपणन को आसान बनाती है तब कहीं जाकर यह तीनों बिल किसानों के हित में हो सकते हैं अन्यथा यह तीनों बिल प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से व्यापारियों, बड़े काश्तकारों तथा कॉरपोरेट्स को लाभ पहुंचाने जा रहे हैं तथा किसान अपने ही जमीन पर मजदूर बनने जा रहे है।

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