पीएनबी घोटाला किसी बड़ी बैंकिंग मंदी की आहट तो नहीं !

भारतीय अर्थव्यवस्था में बैंकिंग सेक्टर उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा है. पहले माल्या फिर नीरव मोदी, मेहुल चोकसी और अब विक्रम कोठारी जैसे कुछ बड़े कॉरपोरेट उद्यमियों ने बैंकिंग व्यवस्था में मौजूद खामियों का भरपूर इस्तेमाल किया. पीएनबी घोटाले के बाद से शेयर बाजार में बैंकिंग, इंश्योरेंस और म्यूचुअल फंड सेक्टर को बड़ी चपत लगी है. 13 फरवरी को घोटाला सामने आने के सात दिनों में लगभग 40 हजार करोड़ रुपये का नुकसान इन क्षेत्रों में हुआ.

इन आंकड़ों को देखकर तो यही लगता है कि कहीं भारतीय बैंकिंग व्यवस्था मंदी की आहट तो नहीं दे रही है. ऐसा इसलिए क्योंकि किसी भी बड़ी और विकासशील अर्थव्यवस्था में बैंकिंग सिस्टम सरपल्स यूनिट और डेफिसिट यूनिट के बीच एक माध्यम का काम करता है. जब इस पर संकट आता है तो पूरी वित्तीय व्यवस्था डगमगा जाती है. वर्तमान में 11,400 करोड़ रुपये के पीएनबी घोटाले या फिर विक्रम कोठारी के 3,700 करोड़ रुपये की हेराफेरी ने अर्थव्यवस्था में मौजूद नियंत्रक वित्तीय संस्थाओं की कार्यशैली पर सवाल उठाए हैं.
पहला सवाल यह है कि अगर पीएनबी घोटाले का खेल 2011 से लेकर 2017 तक चलता रहा तो तमाम वित्तीय नियंत्रण एजेंसियां क्या कर रही थीं ? इतने बडे़ घोटाले को बिना विभागीय मदद के अंजाम नहीं दिया जा सकता था.

दूसरा सवाल जो अति संवेदनशील है और मंदी की आहट का सबसे बड़ा संकेत भी है. जब 2016-17 में नीरव मोदी और मेहुल चोकसी का संयुक्त कर्ज ही 8 हजार करोड़ रुपये था और संयुक्त लाभ महज 650 करोड़ रुपये था तो किस आधार पर फरवरी 2017 से मई 2017 के बीच 5,000 करोड़ रुपये की छोटी अवधि के कर्ज के रूप में एलओयू और एलसी जारी किए गए?

बिना किसी ठोस संपत्ति को मॉरगेज (गिरवी) या कंपनी की वित्तीय हालत देखे बिना इतना कर्ज कैसे दिया सकता है ? अमेरिका में आर्इ मंदी के पीछे भी ऐसा ही एक कारण सामने आया था.

तब वहां बैंकों ने ज्यादा से ज्यादा लाभ के लिए बिना सिक्योरिटी के लोन देना शुरू किया था. इसे बैंकिंग भाषा में सबप्राइम लेंडिंग कहते हैं. अब हम क्यों मान लें कि नीरव मोदी ऐसा करने वाला आखिरी शख्स होगा और बाकी अन्य बैंकों में ये स्थिति नहीं होगी?

तीसरा और अंतिम सवाल. यह सरकार की नियंत्रण करने वाली संस्थाओं को कठघरे में खड़ा करता है. जब बैंकिंग में ऑडिटिंग की त्रिस्तरीय व्यवस्था बनी है तो इतना बड़ा घोटाला पिछले छह सालों में कैसे अछूता रह गया?

किसी भी बैंक की ऑडिटिंग की त्रिस्तरीय जांच होती है. पहली जांच इंटर्नल लेवल पर होती है. दूसरी, कोर्इ प्रतिष्ठित चार्टर्ड अकाउंटेंट फर्म करती है. तीसरी जांच खुद आरबीआर्इ करता है.

इनके होने के बाद भी इतना बड़ा घोटाला कैसे हो जाता है? यह घोटाला बैंकिंग व्यवस्था की कार्यप्रणाली पर संदेह के साथ इनकी जवाबदेही भी तय करता है. निवेशकों से लेकर बैंक के उपभोक्ताओं तक का जो विश्वास बैंकों से उठा है, उसको कैसे बहाल किया जाएगा?

फिलहाल पीएनबी घोटाले ने एक बात साफ कर दी है. वह यह है कि भारतीय बैंकिंग व्यवस्था में विदेश से होने वाले लेनदेन को लेकर कोर्इ ठोस निगरानी व्यवस्था नहीं हैं जो तत्काल बैंकिंग फ्रॉड को पकड़ सके. भारतीय नियंत्रण एजेंसियों को इस पर विचार करना होगा .

विक्रांत सिंह
(संस्थापक एवं अध्यक्ष, फाइनेंस एंड इकोनॉमिक्स थिंक काउन्सिल, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी )

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