सरकार का बजट में चार प्रमुख क्षेत्रों पर विशेष जोर होता है. इस बार के बजट में भी मोदी सरकार ने कृषि, रोजगार, स्वास्थ्य और इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए बजट का बड़ा हिस्सा आवंटित किया है. सामाजिक अर्थशास्त्रियों ने सरकार की नीतियों पर मुहर लगा दी है. इसलिए सरकार खुश है. हालांकि, बढ़े हुए राजकोषीय घाटे को लेकर सरकार को सतर्क रहना होगा.
चालू वित्त वर्ष में वित्तीय घाटा पूर्व निर्धारित लक्ष्य को पीछे छोड़ जीडीपी का 3.5 फीसदी हो गया है. पहले इसे 3.2 फीसदी रखा गया था. सरकार ने उम्मीद जतार्इ है कि 2018-19 में वित्तीय घाटा जीडीपी का 3.3 फीसदी रहेगा. तय लक्ष्य 3 फीसदी को वित्त वर्ष 2021 तक प्राप्त कर लिया जाएगा. राजकोषीय घाटे के तय लक्ष्य को प्राप्त नहीं करना सरकार पर बढ़ रहे आर्थिक दबाव को दर्शाता है.
कितने तरह का होता है घाटा ?
आइए पहले समझते हैं कि घाटा कितने तरह के होते हैं. घाटा तीन तरह का होता है. पहला घाटा है राजस्व घाटा. इसे एक उदाहरण से समझते हैं. अगर किसी देश को 100 रुपये की आय और 75 रुपये के खर्च की उम्मीद है तो 25 रुपये का शुद्ध राजस्व बनता है. लेकिन हुआ कुछ अलग. सरकार ने 90 रुपये का वास्तविक राजस्व प्राप्त किया और खर्च किए 70 रुपये. इस स्थिति में 20 रुपये का शुद्ध राजस्व मिला. यह बजट के अनुमान से 5 रुपये कम है. इसे ही राजस्व घाटा कहते हैं.
दूसरा और अर्थव्यवस्था के लिहाज से सबसे महत्वपूर्ण घाटा ‘राजकोषीय घाटा’ होता है. जब सरकार के कुल राजस्व और कुल खर्च के बीच अंतर हो तो उसे राजकोषीय घाटा कहते हैं. राजकोषीय घाटे के संबंध में एक बड़ा तर्क दिया जाता है. वह यह है कि बढ़ा हुआ राजकोषीय घाटा पूंजी निर्माण और विकास परियोजनाओं का फल होता है. हालांकि, अगर ये बहुत ज्यादा हुआ तो अर्थव्यवस्था के लिए चिंताजनक स्थिति बन जाती है.
ग्रीस इसका उदाहरण है. वहां राजकोषीय घाटा 2010 में जीडीपी का 142 फीसदी हो गया था. राजकोषीय घाटा ज्यादा होने पर सरकार इसकी भरपार्इ के लिए बडे़ पैमाने पर कर्ज लेती है. इससे कर्ज की कुल मांग में तेजी आती है. एेसा होने पर ब्याज दर में भी उछाल आ जाता है. निजी कंपनियां महंगे कर्ज के चलते अपने कुल निवेश में कटौती करती हैं. इससे उत्पादन और रोजगार में गिरावट आती है.
तीसरा प्राथमिक घाटा होता है. राजकोषीय घाटे से ब्याज भुगतान को हटा दें तो प्राथमिक घाटा मिल जाएगा. ब्याज भुगतान वह भुगतान है जिसे सरकार लिए गए कर्ज पर देती है. राजस्व घाटे की सीमा 0 से 3 फीसदी के बीच ही रखने की बाध्यता है. भारत विकासशील देश है. सामाजिक विकास की योजनाओं पर भी यह अधिक बल देता है. इसलिए सरकार लक्ष्य से हमेशा दूर ही नजर आती है. 2007-08 में भारत एक बार राजकोषीय घाटे को सीमा के अंदर जीडीपी का 2.5 फीसदी लाने में कामयाब हुआ था.
वित्तीय घाटा बढ़ने की वजह बजट 2018 में बढ़े हुए वित्तीय घाटे के पीछे सबसे बड़ा कारण जीएसटी के राजस्व में आर्इ गिरावट है. बाजार में जारी गिरावट भी इसकी एक वजह है. सरकार वित्तीय घाटे को रोकने के लिए खर्च में कटौती नहीं कर सकती है. कृषि, स्वास्थ्य, रोजगार और शिक्षा पर किया गया खर्च मानव पूंजी के निर्माण का आधार बनता है.
इसलिए अब सरकार कर्ज लेने पर ही विचार करेगी. वैसे सरकार के लिए अच्छा होगा कि वह गैर-कर राजस्व को बढ़ाने पर जोर दे. सरकारी कंपनियों के विनिवेश के जरिये बिना किसी अतिरिक्त कर्ज के राजस्व जुटाए. चालू वित्त वर्ष में समस्या यह है कि बढ़ा हुआ राजकोषीय घाटा कहां जाएगा? सरकार अगर तय घाटे के लक्ष्य से फिर चूक गर्इ तो क्या यह उसकी साख पर प्रश्न नहीं होगा? सरकार की ओर से घोषित बड़ी योजनाओं को वित्तीय मदद कैसे मिलेगी?
इन चुनौतियों के बीच उम्मीद भी है. जीएसटी के लागू होने से अप्रत्यक्ष करदाताओं की संख्या में इजाफा हुआ है. प्रत्यक्ष करदाताओं में हर साल बढ़ोतरी हो रही है. सरकार के लिए आने वाले समय में ये संजीवनी का काम करेंगे.
विक्रांत सिंह (संस्थापक एवं अध्यक्ष, फाइनेंस एंड इकोनॉमिक्स थिंक काउन्सिल, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी )